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६० तीर्थङ्कर भगवान महावीर
मां या नृप-हाथ पकड़ वे, हर्षित स्व अजिर में चलते । या कभी स्वतः भी चलने, का साहस करने लगते ॥
दो पग ज्यों ही वे चलते, वैसे ही हैं गिर पड़ते । पर नहीं हार ले कर के,
कुछ बैठे ही वे रहते ॥ वे पुनः खड़े हो कर हैं, चलने का यत्न सँजोंते । क्रम-क्रम चलने में यों ही, में पारंगत हैं होते ॥
यों लखकर शिशु की दृढ़ता, आश्चर्य चकित सब होते । सब के भी चकित वदन लख,
शिशु वर्द्धमान मुस्काते ॥ उनके ही मुस्काते सब, खिलखिला हास हैं करते । जैसे दिनकर को लख कर, अनगिन सरसिज हों खिलते ॥
सम्राट वत्स को प्रायः, हैं राज-भवन में लाते।