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तृतीय सर्ग : शिशु वय
जीवन का परम सरलतम,
सात्विक आनन्द यही है ।। धीरे धीरे यों करके, हैं दिवस बीतते जाते। त्यों-त्यों त्रिशला-नन्दन भी, क्रम-क्रम हैं बढ़ते जाते ॥
अब बात चीत भी प्रायः, वे करने खूब लगे हैं। उनको बातों के रस में,
सब जन भी खूब पगे हैं। वे अन्य मनस्क कभी जब, रहते कोई चुपके से । ले उनके शिरस्त्राण को, दुबका देता धीरे से ॥
वे शोघ्र समझ जाते तब. कहते 'मम शिरस्त्राण' क्यों ! है उठा लिया जी तुमने,
कुछ समझ न पाया मैं ज्यों !! रह व्यक्ति कि जिसने उनका, था शिरस्त्राण दुबकाया। बोला-'क्यों लेता उसको, होगा कौवा ले धाया ।