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तृतीय सर्ग : शिशु वय शिशु आया हुआ न पा कर, कुछ खीझ-खीझ यों कहती॥
जाने कब तक पाएगा, प्यारा-सा मुन्ना अपना । मैं कहीं न जाने दूगी,
उसको निश्चय यह अपना ॥ हो जाय कहीं यदि कुछ भी, अपने मुन्ने को बोलो । मैं क्या फिर समझ रहूंगी, मम हृदय-दशा तो तोलो ।
दासों कहती कि प्राप हैं, यह व्यर्थ सोचती सब कुछ। मुन्ना का भाग्य बड़ा है,
उसका होगा न तनिक कुछ। फिर आहट पाकर माँ श्री, हैं स्वयम् द्वार तक जाती । अपना मन लिए हुए सी, पा शिशु न लौट वे आती ॥
फिर स्वयम् उसे पाने को, चलने को उद्यत होती। इतने में मुन्ना प्राता, बे अमित मोद मन करती ॥