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तोर्थङ्कर भगवान महावीर मां के अन्तर की कोमलता, मां के अन्तस की मृदु ममता। मां का मानस हो जान सका,
क्या इसकी कहीं प्राप्य समता? जा पहुंचे उधर बाग में जब, सब सन्मति को ढूंढ़ते हुए। नप वैद्य आदि ने देखा तब,
उनको फण पर खेलते हुए ॥ पाश्चर्य चकित कुछ स्तम्भित, रह गए सभी जन जो प्राए । कौतूहल पर सबके मुख पर
भय-चिह्न सहज ही दिखलाए । परों की भूमि सरकती-सी, उन सबको थी भासने लगी । रोंगटे खड़े सबके प्रागे
बढ़ने की पर हिम्मत न जगी॥ लेकिन वे बर्द्धमान निर्भय, उस सर्प-साथ खेलते रहे । पर एक दूसरे का मुंह बे,
आगन्तुक गण देखते रहे ॥ लेकिन सन्मति को कुशल देख,
नृप को साहस कुछ तोष हुमा।