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तीर्थङ्कर भगवान महावीर
उनके मग में जब भी हैं, ऊँची दहरी पा जाती। तब उसे पार करने की,
उनकी कोशिश है होती ॥ माँ त्रिशला नपति अन्य जन, आकर सुत चेष्टा लखते । देखते-देखते शिशु को, दूसरी ओर हैं पाते ॥
शिशु वर्द्धमान जब इसविधि, निज कार्य सिद्ध कर लेते । ताली निज लघु हाथों से,
तब बजा-बजा कर हंसते। इस पर सहसा ही कुछ जन, लोकोक्ति सुभग दुहराते । होने वाले 'विरवा' के, 'चीकने पात' हैं होते ॥
नप-सम्राज्ञी के मुख पर, कुछ स्वाभिमान की रेखा । ऐसे समयों पर ही तो,
सब जन करते हैं देखा ॥ त्रिशला-सुत कभी शून्य में, देखा करते इकटक हो ।