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तृतीय सर्ग : शिशु वय
इतने में हट जाती,
ज्यों ही मां निकट पहुंचते ॥ वे शीघ्र वहां से मुड़ कर, मां मोर दौड़ हैं भरते । घण्टों ही यों वे माँ-संग, हैं खेल खेलते रहते ॥
जब बहुत देर हो जाती, वे तनिक खीझने लगते । लेकिन न नेक भी रुकते,
मां को वे छूते फिरते ॥ मां त्रिशला थका जान कर, हैं उन्हें गोद में लेती। वे प्रति दुलार से उनको, पुचकार सहज ही लेती ॥
सारा वैभव हो उनका, इस पर न्योछावर होता। क्या तीन लोक का कोई,
सुख इससे समता रखता ॥ शिशु वर्तमान छोटे हो, घुटनों ही अभी सरकते। पर अपनी सीमा में ही, बे समी यत्न हैं करते।