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तृतीय सर्ग : शिशु वय यह स्वयम् शकुन ही जैसे, सर्जक संसृति-सुख-कानन ॥
धीरे-धीरे वे बढ़ते, मानों कुछ ऐसा लगता । जैसे विहान-वेला में,
क्रम-क्रम प्रकाश हो बढ़ता ।। दो-तीन मास ही बीते, लेकिन वे घुटनों के भर । चलने की कोशिश करते, शिशुवय में अमित शक्तिवर ।।
वे अब कलबल कलवल कर, बातें भी करने लगते । अपने नन्हें हाथों से,
कुछ संकेतों को करते ।। जब सुभग महल आँगन में, वे कुछ कुछ सरका करते । तब मात-पिता कुछ गृह-जन, टुक टुक उनका श्रम लखते ॥ .
उनके सस्मित मुख-विधु के, भामण्डल पर छवि बसती। निर्द्वन्द-भाव में कैसी, सुन्दर निरोहता हंसती ॥