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२२ तीर्थङ्कर भगवान महावीर पा स्वर्ण ज्योति, पल्लव हीरे-से लगते । पौधों पर सुन्दर सुमन, नगों-से जड़ते ॥
इस भाँति रंगीली, कुसुमावलि मुस्काई।
मृदु कलिकाओं में प्राई नव तरुणाई॥ श्यामल भृङ्गों ने भी तो ली अंगड़ाई। पुष्पों के जग में मधुरिम तान सुनाई।
हंसते इन्दीवर सर के उमिल जल में।
करते गुञ्जन जिन पर मधुकर मस्ती में । उड़ता पराग सुरभित समीर है करता। जो स्वांस-स्वांस में नव-जीवन रस भरता॥
खग-वृन्द फुदकते और चहकते उड़ते।
कुछ कहीं कतारों में जाते, रव करते ॥ है कुण्ड-ग्राम में छटा छबीली छाई। राजोद्यान में रूप-राशि मुस्काई॥
घूमने प्रा गई सम्राज्ञी उपवन में।
कुछ सखियों को भी लाई हैं वे संग में। दूर्वा के कोमल-दल पर ये सुन्दरियाँ। चल रही चरण शत-दलधर ज्यों अप्सरियाँ ॥
इनके माने से छटा और छवि पाती।
सुन्दरता भी ज्यों इनसे है शरमाती॥ करने उपवन ने निज प्रामा प्रो दुगुणित । क्या हिला पात-कर इनको किया निमंत्रित ॥