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द्वितीय सर्गः जन्म-महोत्सव बोला वह, 'भू-शशि दर्शन का,
शुभ सुयोग अपना होगा।' उधर नगर की निकटवर्तिनी,
प्रकृति सलौनी है हंसती । लगता कोई बात निराली,
__ होने को क्या यह कहती ! धीरे-धीरे - प्राची-तट पर,
अरुणिम ऊषा मुस्काई। अनुपम अरुणोदय हो निकला,
तरुण दिव्य प्राभा आई ॥ चिर प्राह्लाद आज ऊषा में,
__चरम-बिन्दु सुन्दरता का। लो, क्या हो निकला मृदु कम्पन,
उसके लाल कपोलों का ॥ उसके अरुण अधर हिल निकले,
बोल उठी वह क्या मानों। 'मेरे दिनकर ! अाज तुम्हारे,
साथ उदय होगा जानों। पृथ्वी पर 'जाज्वल्यमान रवि',
ज्ञानालोक दिव्य जिसका। ध्वस्त करेगा निखिल विश्व में,
घन प्रसार मिथ्या-तम का ॥'