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द्वितोय सर्गः जन्म महोत्सव
४१ पुष्प-बृष्टि अम्बर-पथ में भी,
__ 'जय-जय' स्वर करते जाते ॥ जब पहुंचे सुमेरु पर, सुत को,
स्फटिक शिला पर बिठलाया। क्षीरोदधि से कञ्चन-कलशों
में सुनोर फिर मंगवाया ॥ हाथों हो हाथों देवों ने,
जल लाकर अभिषेक किया। शिशु के सस्मित मुख-मण्डल पर,
दिव्य कान्ति ने जन्म लिया ॥ धन्य भाग्य जो तीर्थङ्कर सुत,
के दर्शन का योग मिला । संस्तुति-गान-स्नान करने का,
देवों को शुभ समय मिला ॥ और धन्य ये त्रिशला-सुत जो,
इनको सेवा सुर करते । पूर्व उपाजित सत्कृत्यों के,
फल ऐसे हो हैं मिलते । यों अभिषेक आदि करके सुर,
कुण्डग्राम की ओर चले । तीर्थङ्कर शिशु साथ लिए वे,
मोद मनाते हुए चले ॥