________________
शुभ सन्देश और सम्मतियां वर्षिरसी वाणी का लाभ सजित साहित्य के रूप में प्राप्त होता रहेगा।"
(सम्मति ता० १६-५-५६) श्री ज्ञानचन्द्र जैन 'स्वतन्त्र', सह-सम्पादक 'जैन-मित्र',
सूरत".."सत्साहित्य वह नहीं जो बहुत बड़ी पुस्तक या ग्रन्थ रूप में हो । वह तो मात्र एक कलेवर है । "सत्साहित्य वह है जिसमें पाठक की रुचि बनी रहे, पुनः पढ़ने की इच्छा हो। मौलिकता एवं नवीनता मिले । तीर्थकर भ० महावोर इसी प्रकार की सुन्दर काव्यात्मक रचना है, जो पाठकों को अपनी ओर वरवस खोंच लेती है ।" (विस्तृत समालोचना का एक अंश)
श्रीमतो रूपवती देवी जैन 'किरण' जबलपुर
"भाई वीरेन्द्रप्रसाद जी का काव्य महावीर' हस्तगत हुना। पढ़ा, धाराप्रवाही होने के साथ ही अत्यन्त रोचक बन पड़ा है। भ० महावीर की वारणी जन-जन तक पहुंचाने का प्रयत्न स्तुत्य है । द्वेष, स्वार्थ, असीम अभिलाषाओं से पीड़ित विश्व को इस युग म शांति को साधना असम्भव सी प्रतीत होती है। मृगमरीचिका की विभीषिका में सच्ची शान्ति के प्राप्तार्थ भगवान के सन्देशों का पुण्यस्मरण ही मङ्गलमय है ।"(पत्र ता०७।६।५९)
श्री लक्ष्मीचंन्द्र 'सरोज' एम० ए०, जावरा" प्रस्तुत काव्य ग्रन्थ लिखते समय वीरेन्द्र प्रसाद का लगभग वही दृष्टिकोण रहा. जो दृष्टिकोण श्री तुलसीदास जी का 'रामचरित मानस' लिखते समय रहा और जैसे तुलसी अपने राम को मर्यादा पुरुषोत्तम कहना नहीं भूले वैसे ही वारेन्द्र अपने महावीर के तीर्थकरत्व को नहीं भुला सके । अपने आराध्य का