Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामाणैः
धनप्रयोजनयोरर्थाभिप्रायो मोहोदयादवास्तव एव प्रक्षीणमोहानामुदासीनानामिव ममेदं स्वं धनं प्रयोजनं चेति संप्रत्ययानुपपत्तेः । सुवर्णादेर्देशकाल नरान्तरापेक्षायां धनप्रयोजनत्वाप्रतीतेर्वस्तुधर्मस्य तदयोगात्सुवर्णत्वादिवदिति केचित् ॥
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यहां कोई कह रहे हैं कि धन और प्रयोजनमें अर्थ समझ लेनेका अभिप्राय रखना मोहनीय कर्मके उदयसे होता है । अतः वास्तविक ही नहीं है । उदासीन साधु मुनियोंके जैसे यह मेरा अपना धन है, यह मेरा प्रयोजन है, इस प्रकार ज्ञान होना नहीं बनता है, तैसे ही जिनका दर्शनमोहनीय कर्म उपशम या क्षयोपशम रूपसे नष्ट हो गया है ऐसे चौथे पांचवे आदि गुणस्थानवाले जीवोंके भी यह मेरा धन और मेरा प्रयोजन, ऐसे ज्ञानोंका बनना भले प्रकार युक्तिसिध्द नहीं है | दूसरी बात यह है कि किसी किसी देशमें सुवर्ण, चांदी आदि द्रव्योंको धनपना और - प्रयोजनपना नहीं प्रतीत किया जाता है अर्थात् दरिद्र देशोंमें पुण्यहीन व्यक्तियोंकी अपेक्षासे सुवर्णको धन माना गया है । भोगभूमियोंमें या सुदर्शन मेरुपर जानेवाले जीवोंकी तथा देवोंकी दृष्टिमें सुवर्णका विशेष मूल्य नहीं है । मरुस्थलमें दुष्काल पडनेपर कई अवसरोंमें चांदी, सोना सुलभ हो गया था । किंतु दुर्लभ हो रहे अन्न-जल के बिना सहस्रो मनुष्य मृत्युमुखमें प्राप्त हो गये थे । कई धन स्थलोंपर या भूमिमें चींटा चींटी धनके ऊपर चलते बैठते हैं । वे उन रुपयों, भूषणों, फांसों को धन ही नहीं समझते हैं। हां, संचित अन्नकणोंको पूर्ण धन मानते हैं । तथा किन्हीं दूसरे समयोंमें यानीं सुषमसुषम, सुषम, सुषमदुःषम इन भोगभूमि कालोंमें यहां भी सुवर्ण धन नहीं माना जाता था । एवं अब भी यहां अतीव पुण्यशाली पुरुष या दुसरे न्यारे वीतराग साधु आत्माओं की अपेक्षासे सुवर्णको धनपना और प्रयोजनपना प्रतीत नहीं होता है । अब भी अनेक पदार्थ ऐसे हैं, जो कि कूडेके समान फेंक दिये जाते हैं । किंतु दूसरे देश, काल और व्यक्तियोंकी अपेक्षासे वे अधिक मूल्यके हैं । वनमें रहनेवाली भीलनी गज-मुक्ताओंका तिरस्कार कर गोंगचियोंसे अपने आभूषण बनाती हैं । जिन हजारों आमकी गुठलियोंको हम यों ही कूडेमें फेंक देते हैं, किसी समय दस रुपया व्यय करनेपर भी वह प्राप्त नहीं होती है । नीमके पत्ते यहांपर बहुत मिलते हैं, किंतु देशान्तरोंमें वे मूल्यसे पुडियोंमें बेचे जाते हैं । जंगलमें सैकडों जडी बूटियां खडी हुई हैं जिनको कि पशु पक्षी भी भक्षण नहीं करते हैं, वे ही न जाने किन किन रोगोंको दूर करनेकी शक्तियां रखती हैं । सुवर्ण आदि रसायन बनाने में भी उनका उपयोग हो सकता है । यदि वे सहस्रों रूपये तोले बिकें तो भी उनका मूल्य न्यून ही है । जो खेतकी मिट्टी, गेहूं, चना, जौ, फल, फूल, खाण्ड आदिको पैदा . कर सकती है और जो जलवायु योंही इधर उधर बिखर रहे हैं, वे रसायन शास्त्र की दृष्टिसे सुवर्ण, हीरा, माणिक, पन्नासे भी अधिक मूल्यके हैं । सुवर्णसे भूख दूर नहीं होती, प्यास नहीं बुझती, प्राण वायु नहीं बनती है, अन्न भी नहीं उपजता है । अतः वस्तुके धर्मोकी अपेक्षासे विचारा जावे तो धन और प्रयोजनपना उस वस्तुका स्वभाव नहीं है, जैसे कि सुवर्णका सुवर्णपना या रस, गन्ध
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