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भूमिका ]
अर्थात्- "कुसुमावली निरन्तर लम्बे-लम्बे श्वास छोड़ती हुई शय्या का सेवन करने लगी। उस समय उसका मन कामदेव के बाणों से बिद्ध हो गया था। अपने कार्यों को उसने छोड़ दिया था। न तो चित्र ही बनाती थी.न अंगराग लगाती थी, आहार की इच्छा नहीं करती थी और अपने भवन का अभिनन्दन नहीं करती थी। चिरपरिचित भी शुक और सारिकाओं के समूह को नहीं पढ़ाती थी, भवन के मनोहर और चतुर कलहंसों को भी नहीं खेलाती थी । न महल की छत पर घूमती थी, न घर की बावड़ी में स्नान करती थी, वीणा नहीं बजाती थी, न पत्रच्छेदकर्म भी करती न गेंद खेलती थी। आभूषणों का आदर नहीं करती थी, समूह से बिछुड़ी हुई हरिणी के समान उसी (कुमारसिंह) का ही स्मरण करती थी। क्षणमात्र के लिए उसके नेत्रों का विस्तार रुक जाता था। क्षणमात्र में वह अधीर हो लम्बे साँस लेने लगती, क्षणभर के लिए उसके शरीर की चेष्टाएँ रुक जाती थीं, णभर में म्लानमुख हो बातें करने लगती थी।
__ समराइच्चकहा में बड़ी मर्नोल तथा अनुभवपूर्ण उक्तियाँ भरी पड़ी हैं, जो नित्यप्रति विद्वानों का कण्ठहार बन सकती हैं। जैसे'सुणह सोयव्वाई', 'पंसंसह पाईणज्जाइं,' 'परिहरह परिहरियव्वाइं,' 'आयरह आयरियव्वाइं,'
"धम्प्लेण कुलपसूई धम्मेण य दिव्वरूवसंपत्ती। धम्मेण धणसमिद्धि धम्मेण सुवित्थडा कित्ती १२ बहुजणधिक्कारहया उवह सणिज्जा य सव्वलोयस्स । पुट्विं अकयसुपुण्णा सहंति परपरिभवं पुरिसा ॥३६॥ पेच्छंति न संगकयं दुक्खं अवमाणणं च लोगाओ। दोग्गइपडणं च तहा वणवासी सव्वहा धन्ना ॥४५॥ जणपक्खवायबहुमाणिणा वि जत्तो गुणेसु कायव्वो। आवज्जति गुणा खलु अबुहं पि जणं अमछरियं ।४६॥ पुरिसाण मोहनिद्दासुत्ताण वि सिमिणयं पिव कहेइ।
पुर्वि कयाण वियर्ड फलं च जो भागधेयाणं ४७।। अलंकार योजना--आचार्य मम्मट के अनुसार, प्रथमतः विद्यमान रस को कभी कभी शब्दार्थ रूप काव्यांगों द्वारा जो उपकृत करते हैं वही अनुप्रास उपमादि अल कार कहे जाते हैं।' जिस प्रकार लोकव्यवहार में कटक, कुण्डल आदि आभूषण या अलंकार पुरुष या रमणी के शरीर की शोभा बढ़ाकर उसके सौन्दर्य को निखार देते हैं, उसी प्रकार काव्यगत अलंकार कविताकामिनी के शरीरस्थानीय शब्द और अर्थ की शोभा बढ़ाकर उस के माध्यम से काव्यात्मस्वरूप रस के भी उपस्कारक होते हैं। आचार्य हरिभद्र ने समराइच्चकहा में अलंकारों का पर्याप्त प्रयोग किया है। उदाहरणार्थ उनके द्वारा प्रयुक्त कुछ अलंकार प्रस्तुत हैं---
__ अनुप्रास-स्वरों की विषमता रहने पर भी जो शब्दसाम्य अर्थात् व्यंजनमात्र की समानता बतलाता है, वह अनुप्रास कहा जाता है । हरिभद्र ने अनुप्रास अलंकार का बहुत प्रयोग किया है। जैसे
तिवलीतरंगभंगु रमज्झविरायंतहाररम्माओ। मुहलरसणाहिणंवियवित्थिण्णनियंबिबाओ ॥१०७।। गाढपरिओसपसरियविलाससिंगारभावरम्माओ। पेच्छइ समूसियाओ वम्महसरसल्लियमणाओ॥१०॥
१. उपफुर्वन्ति तं सन्तं येऽङ्गद्वारेण जातुचित् ।
हारादिवदलङ्कारास्तेऽनुप्रासोपमादयः |-काव्यप्रकाश ८/२
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