Book Title: Samraicch Kaha Part 1
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 417
________________ पंचमो भवो दोसे अणिरूविऊण परमत्थं अक्विप्यंत हिययं कुरंतबाहुजुथलो परिचितिउं पत्तो । किहओहामियसुरसुंदरिवाइसयं विनिम्मियं दट्ठ विहिणो वि नूणमेयं बहुमाणो आसि अप्पा ||४४२॥ एसा चावायड्ढणवियलं मुणिउण वम्महं विहिणा । जहियमेयणसहा विणिम्मिया हत्यभल्लि व्व ॥ ४४३ ॥ एत्थं तरम् समागओ से अहं दंसणगोयरं, पुलइयो य तीए ससिणेहमारत्तकसणधवलेह चलंततारएहि नयणेहिं ससज्झता विय अणाचिक्णीयं अवत्थंतरमगुहवंती समुट्टिया एसा । तओ | भणियं ' अणंगसुंदरोए सुसागयं मयरद्धयस्स, ] मए वि भणियं सागयं वसंतलच्छीए । सुंदर, अलं संभमेण । एत्यंतरम्मि तं चेवासणमुवदंसिऊण भणियं अणंगसुंदरीए - उवविसउ कुमारो । विलासवइआसणं ति बहुमाणेण उवविट्ठो अहं । उवणीयं च मे कलधोयमयतलियाए तंबोलं । तं च घेत्तूण भणियं मए-उवविस रायधूयति । उवविट्ठा एसा । ठियाणि कंचि वेलं । ( खचित) कनकासनोपविष्टा विलासवतीति । ततस्तं दृष्ट्वा मोहतिमिरदोषेणानिरूप्य परमार्थमाक्षिप्यमान हृदयं स्फुरद्वाहुयुगलः परिचिन्तितुं प्रवृत्तः । कथम · ? तुलितसुरसुन्दरीरूपातिशयां विनिर्मितां दृष्ट्वा । विधेरपि नूनमेतां बहुमान आसीदात्मनि ॥ ४४२॥ एषा चापाकर्षणविकलं ज्ञात्वा मन्मथं विधिना । जनहृदयभेदन सहा विनिर्मिता हस्तभल्लिरिव ॥ ४४३ ॥ अत्रान्तरे समागतस्तस्याहं दर्शनगोचरम् दृष्टश्च तया सस्नेहमा रक्त कृष्णधवलाभ्यां चलत्ताकाभ्यां नयनाभ्याम् । ससाध्वसेव अनाख्येयमवस्थांतरमनुभवन्ती समुत्थितेषा । ततो [भणितमनङ्ग सुन्दर्या - सुस्वागतं मकरध्वजस्य ] मयाऽपि भणितम् - स्वागतं वसन्तलक्ष्म्याः । सुन्दरि ! अलं सम्भ्रमेण । अत्रान्तरे तदेवासनमुपदश्यं भणितमनङ्ग सुन्दर्या - उपविशतु कुमारः । विलासवत्यासनमिति बहुमानेनोपविष्टोऽहम् । उपनीतं च मे कलधौतमयतलिकया ताम्बूलम् । तं च गृहीत्वा भणितं मया - उपविशतु राजदुहितेति । उपविष्टेषा । स्थिताः काञ्चिद् वेलाम । ३५६ अनन्तर उसे देखकर मोहरूपी अन्धकार के दोष से परमार्थ का विचार न कर आकर्षित हृदयवाले बाहु युगल को हिलाते हुए उसने (राजकुमार ने) विचार करना आरम्भ किया । कैसे ? निश्चित रूप से इसका देवागना के समान अतिशय रूप देखकर आत्मा में (मन में) विधाता के प्रति भी बहुत आदर हो रहा था । कामदेव को धनुष के आकर्षण से रहित जानकर ब्रह्मा ने मनुष्य के हृदय को भेदन करने में समर्थ हाथ के भाले के रूप में इसे निर्मित किया है ।।४४२-४४३॥ इसी बीच में उसके दृष्टिपथ में आया। उसने स्नेहपूर्वक चंचल पुतलियों वाले, कुछ-कुछ लाल, काले और सफेद नयनों से मुझे देखा । शीघ्र ही अनिर्वचनीय अवस्था का अनुभव करती हुई यह उठ खड़ी हुई । तब अनंगसुन्दरी ने कहा - 'कामदेव का स्वागत है।' मैंने भी कहा - 'वसन्तलक्ष्मी का स्वागत है । सुन्दरी ! घबड़ाओ मत ।' इसी बीच उसी आसन को दिखाकर अनंगसुन्दरी ने कहा- 'बैठिए कुमार !' (यह) विलासवती का बासन है - ऐसा मानकर मैं बहुत आदर के साथ बैठ गया। वह राजपुत्री मेरे लिए सोने के डिब्बे से पान लायी । उसे लेकर मैंने कहा – 'राजपुत्री ! बैठो ।' वह बैठ गयी। कुछ समय तक ( हम लोग ) बैठे रहे । १. प्रयं कोष्ठान्तर्गत पाठ: कन्ग पुस्तके नास्ति, २. मए भ, ३. प्रामणे तिख, ४ ठिया यक । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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