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[ समराइच्चकहा
'हण हण छिंद छिंद भिंद भिंद' भणमाणीओ य धावियाओ अभिमुहं । न खुद्धो चित्तेणं पसंता विहोसिया । तओ अद्धजामावसेसाए जामिणीए समत्त पाए मंतजावे सुरहिकुसुमामोयगब्भिणो पवाइओ महुरमारुओ, निर्वाडिया कुसुमवुट्ठी, जय जय त्ति उट्ठिओ कलयलरवो, गाइयं किन्नरोहिं । तओ थेववेलाए चेव उज्जोवयंती नहंगणं अणेयदेवयापरिगया आगया अजियबल ति । दिट्ठा य सा
मए—
दित्ताणलस्स व सिहा पहासमिद्धि व्व सारयरविस्स । जोहा छणचंदस्स व वसंतकमलायर सिरि व्व ॥ ४६८ ॥
भणियं च तोए - अहो ते ववसाओ, अहो ते पोरुसं, अहो ते निच्छओ, अहो ते उवओगो सि । ता सिद्धा ते अहं । उवरम इओ ववसायाओ त्ति । तओ मए असमत्तकइवय मंतजावेण विहोसियासंका अपणमिण भयवइं समाणिओ मंतजावो, पण मिया य पच्छा । एत्थंतरम्मि -
तारकं चातिभ षणमितस्ततः प्रलोकयन्तो दुष्टराक्षस्यो 'हत हत छिन्त छिन्त भिन्त भिन्त' इति भणन्त्यश्च धाविता अभिमुखम् । न क्षुब्धश्चित्तेन प्रशान्ता बिभीषिका । ततोऽर्धयामावशेषायां यामिन्यां समाप्तप्राये मन्त्रजापे सुरभि कुसुमामोदगर्भितः प्रवातो मधुरमारुतः, निपतिता कुसुमवृष्टिः, जय जय इत्युत्थितः कलकल रवः, गीतं किन्नरोभिः । ततः स्तोकवेलायामेव उद्योतयन्ती भोऽङ्गणमनेकदेवतापरिगताऽऽगताऽजितवलेति । दृष्टा च सा मया ।
दोप्तानलस्येव शिखा प्रभासमृद्धिरिव शारदरवेः ।
ज्योत्स्ना क्षणचन्द्रस्येव वसन्तकमलाकर श्रीरिव ॥ ४६८ ॥
भणितं च तया - अहो व्यवसायः, अहो ते पौरुषम्, अहो ते निश्चयः, अहो ते उपयोग इति । ततः सिद्धा तेऽहम् । उपरम इतो व्यवसाय दिति । ततो मयाऽसमाप्तकतिपय मन्त्रजापेन विभीषिकाशङ्कयाsप्रणम्य भगवतीं समाप्ता मन्त्रजापः । प्रणता च पश्चात् । अत्रान्तरे
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को काट रही थीं, उनकी जलती हुई नेत्रों की तलियाँ थीं और वे अत्यन्त भयंकर थीं, इधर उधर देख रही थीं, 'मारो मारो, छेदो छेदो, भेदो भेदो' - इस कार कहती हुई दौड़ रही थीं । मेरा चित्त क्षुब्ध नहीं हुआ । आतंक शान्त हो गया । अनन्तर जब रात्रि का आधा प्रहर मात्र शेष रहा और मन्त्र का जाप समाप्तप्राय था तब सुगन्धित फूलों की गन्ध से भरी हुई मधुर वायु वही, फूल की वर्षा हुई, जय-जय का शब्द उठा और किन्नरियों ने गीत गाया । थंड़ी देर में ही आकाश रूपी आँगन को देवताओं से घिरी हुई 'अजितबला' आयी । उसे मैंने देखा -
इस प्रकार के कोलाहल उद्योतित करती हुई अनेक
प्रज्वलित अग्नि की तरह उसकी शिख शरत्कालीन सूर्य के समान उसकी प्रभा का विस्तार, मध्यरात्रि के चन्द्र की तरह उसकी चाँदनी (ज्योत्स्ना ) तथा वसन्तकालीन कमल समूह की शोभा की तरह उसकी शोभा थी ||४६८ ॥
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उसने ( मुझसे ) कहा - 'ओह ! तुम्हारा प्रयत्न, पौष, निश्चय और उपयोग आश्चर्यजनक हैं, अतः मैं तुम्हें सिद्ध हैं, इस कार्य से विराम लो।' अन्तर मैंने कुछ मन्त्रों का जाप समाप्त न करने से आतंक की आशंका से भगवती को प्रणाम किये बिना मन्त्रों का जाप पूरा किया। बाद में प्रणाम किया । इसी बीच —
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