Book Title: Samraicch Kaha Part 1
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 480
________________ ४२२ [ समराइज्चकहा भयवई, किंतु देवीए वसुभइणो य पच्चक्खं ति। तओ सद्दाविओ वसुभई, जाव न जंपड त्तिः तओ निहालिओ, जाव न दीसइ त्ति। तओ आसंकियं मे हियएण। विज्जाहरसमेओ य नहंगणगमणेणं पयट्टो गवेसिउं । दिट्ठो य एगम्मि निगुंजे इओ तओ परिब्भमंतो वसुभई । सो य पेच्छिऊण अम्हे उभयकरगहियरुक्खसालो 'अरे रे दुविज्जाहरा, पियवयंसस्स जीवियाओ वि अब्भहिययरं देवि विलासवई अवहरिऊण कहिं गच्छसि'त्ति भणमाणो धाविओ अहिमुहं ति । तओ मए चितियं । अवहरिया देवी, अफलो मे परिस्समो। पुच्छिओ वसुभूई 'कहिं कहिं देवित्ति । तओ तेण विज्जाहरविप्पलद्धद्धिणा वाहिओ मे घाओ। वंचिओ सो मए अवहरिया य से साहा। तओ गेण्डिऊण नये 'वयस्स, अलमन्नहावियप्पिएण; साहेहि ताव, कहिं देवित्ति पुणो पुणो पुच्छिओ। तओ विसेसेण पउत्तलोयणवावारं मं पुलोइऊण भणियमणेण- भो वयस्स, सुण। पउत्तविज्जासाहणारंभे तमम्मि जाए अड्ढरत्तसमए समागयं विज्जाहरवंद्र, विहीसियासंकाए य अवमन्नियं तं मए । तओ थेववेलाए चेव 'हा अज्जउत्त, हा अज्ज उत्त'ति' आयण्णिओ देवीए सद्दो। आसंकियं मे हियएणं । दिटा भणितम-करोतु भगवती, किन्तु देव्या वसुभूतेश्च प्रत्यक्षमिति । ततः शब्दायितो वसुभूतिः, यावद् न जल्पतीति । ततो निभालितो यावद् न दृश्यते इति । तत आशङ्कितं मे हृदयेन । विद्याधरसमेतश्च नभोङ्गणगमनेन प्रवृत्तो गवेषयितुम् । दृष्टश्च एकस्मिन् निकुञ्ज इतस्ततः परिभ्रमन वसुभूतिः । स च प्रेक्ष्यास्मान् उभयकरगृहीतवृक्षशाख: 'अरे रे दुष्टविद्याधर ! प्रियवयस्यस्य जीवितादप्यधिकतरां देवों विलासवतीमपहृत्य कुत्र गच्छसि' इति भणन् धावितोऽभिमुखमिति । ततो मया चिन्तितम् -- अपहृता देवी, अफलो मे परिश्रमः । पृष्टो वसुभूतिः 'कुत्र कुत्र देवी' इति । ततस्तेन विद्याधरविप्रलब्धबुद्धिना वाहितो मे घातः । वञ्चितः स मया, अपहृता च तस्य शाखा। ततोगहीत्वा हस्ते 'वयस्य ! अलमन्यथा विकल्पितेन, कथय तावत् कुत्र देवी' इति पुनः पुनः पृष्टः । ततो विशेषेण प्रयुक्तलोचनव्यापारं मां प्रलोक्य भणितमनेन-भो वयस्य ! शृणु । प्रयुक्तविद्यासाधनारम्भे त्वयि जातेऽर्धरात्रसमये समागतं विद्याधरवन्द्रम् । बिभोषिकाशङ्कया चावमतं तन्मया। ततः स्तोकवेलायामेव 'हा आयपुत्र ! हा आर्यपुत्र ! इत्याणितो देव्याः शब्दः । आशङ्कितं मे हृदयेन । मैंने कहा- 'भगवती कीजिए, किन्तु वसुभूति के सामने कीजिए।' अनन्तर वसुभूति को बुलाया गया । (वह) नहीं बोला। तब देखा, दिखाई नहीं दिया। इससे मेरा हृदय आशंकित हो गया । विद्याधरों के साथ आकाश रूपी आँगन में ढढने के लिए चल पड़ा । एक निकुंज में इधर-उधर घूमता हुआ वसुभूति दिखाई दिया। वह हम लोगों को देखकर दोनों हाथों से वृक्ष की शाखा पकड़कर-'अरे रे दृष्ट विद्याधर ! प्रिय मित्र की प्राणों से भी अधिक प्यारी देवी विलासवती का आहरण कर कहां जाते हो ?' ऐसा कहता हुआ सामने दौडा । तब मैंने विचार किया-'देवी का अपहरण हो गया है, मेरा परिश्रम निष्फल हुआ । वसुभूति से पूछा'देवी कहाँ हैं ? कहाँ हैं ?' तब उसने विद्याधर को धोखा देने की बुद्धि से मेरे ऊपर प्रहार किया । उसे मैंने धोखा दिया (बचा लिया)और उसकी शाखा हर ली। तब हाथ में लेकर 'मित्र ! अन्यथा सोचने से क्या लाभ ? कहो, देवी कहाँ हैं?' इस प्रकार पुनः पुनः पूछा। तब विशेष रूप से दृष्टि डालकर मुझे देखकर इसने कहा'हे मित्र सुनो ! विद्या के साधन के कार्य में तुम्हारे लग जाने पर आधी रात का समय होने पर विद्याधरों का समूह आया । आतंक की अशंका से हमने उसका सम्मान किया। अनन्तर थोड़ी ही देर में 'हा आर्यपुत्र ! हा आर्यपुत्र !' ऐसा देवी का शब्द सुनाई पड़ा । मेरा हृदय आशंकित हो गया । मैंने विद्याधर के विमान में १. ति भणंतीए-ख। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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