Book Title: Samraicch Kaha Part 1
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 493
________________ पंचमो भवो ] मेल्लंति सोहनाए सत्तीओ भिडिमाल चक्काई । अन्नोन्नरणरसुग्गयपुलया दप्पुद्धरं सुहडा ॥ ४७८ ॥ एवं च वट्टमाणे महासमरे दिट्टो मए अणंगरई, भणिओ य एसो - भो भो विज्जाहरीसर, किमेहि वावाइएहिं विज्जाहर भडेहि, तुज्भं ममं च विबाओ; ता इओ एहि । तओ सो विहसिऊण चलिओ मे अहिं । भणियं च णेण - अरे धरणिगोयर, कोइसो तुज्झ मए सह विवाओ । कि सुओ ae सरिसियालाण विवाओ त्ति । मए भणियं - कि इमिणा जंविएणं । समागया नियाणवेला', ता भणिति एए समरसहासया सुरसिद्धविज्जाहरा, जो एत्थ सियालो, जो वा केसरि ति । एत्थंतरम्मि विइण्णो सुरसिद्धविज्जाहरेहि साहुवाओ । ओसरियाई बलाई । ठिया सयरववहारसहासया विज्जाहरनरिंदा', अम्हे वि गयगचारिणो । मुक्कं च णेण ममोवरि असणिवरिसं, वारियं च तं चम्मरयणेण भवईए । ठिया अदूरे फुरंतकरवालभासुरा विज्जुसंगया दिय मेहावली वामपासम्म भयवई । मए भणियं - भो भो विज्जा हरीसर, नियाणमेयं । ता कि इमिणा मायाजुज्झिएण, नियबलेण जुज्झामो मुञ्चन्ति सिंहनादान् शक्तो भिन्दिपालचक्राणि । अन्योन्यरण रसोद्गतपुलका दर्पोद्धुरं सुभटाः ॥ ४७८ ॥ एवं च वर्तमाने महासमरे दृष्टो मयाऽनङ्गरतिः, भणितश्चैषः - भो भो विद्याधरेश्वर ! किमेतैर्व्यापादितैविद्याधरभटैः, तव मम च विवादः, तत इत एहि । ततः स विहस्य चलितो मेऽभिमुखम् । भणितं च तेन - अरे धरणीगोचर ! कीदृशस्तव मया सह विवादः । किं श्रुतस्त्वया केसरिशृगालयोविवाद इति । मया भणितम् - किमनेन जल्पितेन । समागता निदानवेला, ततो भणिष्यन्त्येते समरसभासदः सुर-सिद्ध विद्याधराः योऽत्र शृगालो यो वा केसरीति । अत्रान्तरे वितीर्णः सुरसिद्ध विद्याधरैः साधुवादः । अपसृतानि बलानि । स्थिताः समरव्यवहारसभासदो विद्याधरनरेन्द्राः, आवामपि गगनचारिणी । मुक्तं च तेन ममोपरि अशनिवर्षम्, वारितं च तच्चर्मरत्नेन भगवत्या । स्थिता अदूरे स्फुरत्करवालभासुरा विद्युत्संगतेव मेघावली वामपार्श्वे भगवती । मया भणितम् - भो भो विद्याधरेश्वर ! निदानमेतत् ततः किमनेन मायायुद्धेन, निजबलेन युध्याव इति । Jain Education International ४३५ एक-दूसरे के प्रति युद्ध करने के रस से जिन्हें रोमांच उत्पन्न हो गया है, ऐसे दर्द से भरे हुए योद्धा लोग शक्ति, भिन्दिपाल, चक्र और सिंहनाद छोड़ने लगे ॥ ४७८ ॥ जब ऐसा युद्ध हो रहा था तभी मुझे अनंगरति दिखाई दिया । मैंने उससे कहा- 'हे हे विद्याधराधीश ! इन विद्याधर योद्धाओं को मारने से क्या लाभ ? तुम्हारा और मेरा विवाद है, अतः इधर आओ ।' तब वह हँसकर मेरी ओर चलने लगा। उसने कहा- अरे भूमिगोनर ! तेरा मेरे साथ सिंह और सियार के बीच विवाद सुना है ?' मैंने कहा - 'ऐसा कहने से क्या लाभ? अतः युद्ध के सभासद् ये देवता, सिद्ध तथा विद्याधर कहेंगे जो यहाँ पर शृगाल होगा बीच सुर, सिद्ध और विद्याधरों ने सराहना की । सेनाएँ दूर हट गयीं । समव्यवहार के सभासद् विद्याधर राजा और गगनचारी हम दोनों स्थित हो गये । उसने मेरे ऊपर अग्नि की वर्षा छोड़ी। भगवती ने चर्मरत्न से उसे रोक लिया । समीप में ही चमकती हुई तलवार के समान देदीप्यमान बिजली के साथ बायीं ओर भगवती ने मेघों का समूह खड़ा कर दिया। मैंने कहा - 'हे हे विद्याधरों के स्वामी ! यह निर्णय है अतः इस माया-युद्ध से क्या लाभ? १. निहसवेला - क । २. विज्जाहरिदा - ख । ३. य समोवे - क | For Private & Personal Use Only कैसा विवाद है ? क्या तूने निर्णय का समय आ गया और जो सिंह होगा।' इसी www.jainelibrary.org

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