Book Title: Samraicch Kaha Part 1
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 494
________________ ४३६ [ समराइच्चकहा त्ति । पडिवन्नं च तेण । आहओ अहं सत्तीए उरे । पहारवियणाउरो निवडिओ धरणिव? । उट्ठाइओ' कलयलरवो, किलिगिलियं अणंगर इबलेण। अमरिसबसेण उढिओ अहयं । रोसफुरियाहरं च मए वि आहओ गयाए अणंगरई, भिन्नसिरत्ताणमत्थगो निवडिओ धराए । उट्ठाइओ कलयलरवो, निवारिभो सो मए। गो तस्स समोवं । सनासातिऊण उद्याविभो एसो । लग्गो य सो ममं बाहुजुज्झेण । तओ दप्पुद्धरा विय वसहा पवणया विय जलहरा मत्ता विय दिसागया तहा संपलग्गा दुवे वि अम्हे, जहा रहिरधारापरिसित्तगत्ताणं पहारसंचुण्णियमउडाणं च म लक्खिओ विसेसो अम्हाणं सुरसिद्धविज्जाहरेहिं । तओ मए विज्जा लाइरेगेण विणिज्जिओ अणंगरई । उग्घोसिओ जयजयसद्दो सुरसिद्धविज्जाहरेहि, विमुक्कं च णे उवरि कुसुमवरिसं, समाहयं जयतूरं । तओ मए दिज्जमाणं पि रज्ज अणिच्छिऊण गओ तवोवणमणंगरई। अहमवि य सयलविज्जाहरिदसमुइओ पविट्ठो नयरं। दिट्ठा य विरहपरिदुब्बलंगी आणंदबाहोल्ललोयणा देवी । ईसि विहसियं मए । विलिया य एसा स्वविरहयक्खित्तहियएहिं पणमिया विज्जाहरिददेहिं । कयाओ नयरववत्थाओ । अहिसित्तो अहयं उभयबलप्रतिपन्नं च तेन । आहतोऽहं शक्त्या उरसि । प्रहारवेदनातुरो निपतितो धरणीपृष्ठे। उत्थितः कलकलरव:, किलिकिलितमनङ्गरतिबलेन । अमर्षवशेनोत्थितोऽहम् । रोषस्फुरिताधरं च मयाऽपि आहतो गदयाऽनङ्गरतिः, भिन्न शिरस्त्राणमस्तको निपतितो धरायाम् । उत्थितः कलकलरवः, निवारितः स मया । गतस्तस्य समीपम् । समाश्वास्य उत्थापित एषः । लग्नश्च स मया बाहुयुद्धेन । ततो दर्पोक्षुराविव वृषभौ पवनहताविव जलधरौ मत्ताविव दिग्गजो तथा संप्रलग्नौ द्वावप्यावाम्, यथा रुधिरधारापरिसिक्तगात्रयोः प्रहारसंचणितमुकुटयोश्च न लक्षितो विशेष आवयोः सुर-सिद्धविद्याधरैः। ततो मया विद्याबलातिरेकेण विनिजितोऽनरङ्गरतिः। उद्घोषितो जयजयशब्दः सुरसिद्ध-विद्याधरैः, विमुक्तं च ममोपरि कुसुमवर्षम्, समाहतं जयतूर्यम् । ततो मया दीयमानमपि राज्यमनिष्ट्वा गतः तपोवनमनङ्गरतिः । अहमपि च सकलविद्याधरसमुदितः प्रविष्टो नगरम् । दृष्टा च विरहपरिदुर्बलाङ्गी आनन्दवाष्पार्द्रलोचना देवी। ईषद् विहसितं मया । वीडिता चैषा रूपविस्मयाक्षिप्सहृदयैः प्रणता विद्याधरेन्द्र : । कृता नगरव्यवस्थाः। अभिषिक्तोऽहमुभय बलविद्याधरेश्वरैस्तत्र अपनी शक्ति से युद्ध करो।' उसने स्वीकार किया। मेरे वक्षःस्थल पर शक्ति की चोट लगी। प्रहार की वेदना से आतर होकर धरती पर गिर गया। इलकल शब्द उठा, अनंगरति की सेना किलकारी मारने लगी। क्रोधवश में उठा । रोष से जिसके अधर फड़क रहे थे, ऐसे मैंने भी गदा से अनंगरति पर चोट पहुंचायी। उसका शिरस्त्राण और मस्तक भिद गया (और वह) पृथ्वी पर गिर पड़ा। कलकल शब्द उठा, वह मैने रोका । (मैं) उसके समीप गया । आश्वासन देकर उसे उठाया । वह मेरे साथ बाहु युद्ध करने लगा। अनन्तर घमण्ड से भरे हुए दो बैलों के समान, वायु से ताड़ित दो मेघों के समान, दो मतवाले हाथियों के समान हम दोनों उस प्रकार युद्ध में लग गये कि खून की धारा से दोनों के शरीर सिंच गये, प्रहार से दोनों के मुकुट चूर्ण दो गये तथा देवता, सिद्ध और विद्याधों को हम दोनों में भेद दिखाई नहीं दिया । अनन्तर मैंने विद्याबल की अधिकता से अनंगरति को जीत 'लया। सुर, सिद्ध और विद्याधरों ने 'जय-जय' शब्द की घोषणा की और मेरे ऊपर फूलों की वर्षा छोड़ी, जीत के बाजे बजाये। अनन्तर मेरे द्वारा दिये गये राज्य को भी न लेकर अनंगरति तपोवन को चला गया । मैं भी समस्त विद्याधरों के साथ प्रसन्न होता हुआ नगर में प्रविष्ट हुआ और विरह से दुर्बल अंगों वाली, आनन्द के आँसुओं से गीले नेत्रों वाली देवी को देखा। मैं कुछ मुस्कराया । रूप और विस्मय से आक्षिप्त हृदय वाले विद्याधर राजाओं ने लज्जाशील इस देवी विलासवती को प्रणाम किया। नगर की व्यवस्था की। दोनों १. उद्धाइओ-ख । २. वराओ-क । ३. हलाए विय-के। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |

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