Book Title: Samraicch Kaha Part 1
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 498
________________ ४४० [समराइज्यकहा गहियाई अणुयाई। पुच्छिओ भयव वितंगओ - भयवं अह कि पुग मए पुवमायरियं, जस्स इमो विचित्तो' पिययमाविरहजलणसंतावो परिणामो त्ति । भयवया भणियं--सुण । अत्थि इहेव भारहे वासे कंपिल्लं नाम नयरं । तत्थ चंदउत्तो नाम नरवई होत्था । जगसुंदरी से भारिया। ताणं सुओ रामगुत्तो नाम तुमं ति । एसा य ते उत्तरावहरीसरतारापीढधूया हारप्पहा नाम पिययम त्ति । कयं च तुमए इमीए सह विसयसुहमणुहवंतेण अणाभोगओ इमं । उव. ट्ठिए वसंतसमए गयाइं तुम्हें कोलिउँ भवणुज्जाणं । पवत्ता य कीला, मज्जियाई भवणदोहियाए। उवट्टियाइं तीरसंठिएसु कयलीहरएसु । उवणीयं कुंकुमविलेवणं । कओ अंगराओ। एत्थंतरम्मि समागयं हंसमिहुणयं । तओ कोउगेण सरसकुंकुमविलित्तहत्थेण गहिया तए हंसिया इयरीए हंसओ ति । जणियं तेसि विरहदुक्खं । फसलियाणि कुंकुमराएण। विमुक्काणि थेववेलाए । पयट्टाणि अन्नोन्नं गवेसिउं। कुंकुमायसंगेग चक्कवायासंकाए दसणे वि परोप्परं न पच्चभिजाणियमणेहि । विरहवेयणाउराइं च ववसियाई मरणं । पवाहिओ दोहि पि तेहि गेहदीहियाए अप्पा। निरुद्ध नीसासं च सम्यक्त्वम्, गृहीतान्यणुव्रतानि । पृष्टो भगवान् चित्राङ्गदः--भगवन् ! अथ किं पुनर्मया पूर्वमाचरितम्, यस्यायं विचित्रः प्रियतमाविरहज्वलनसन्तापः परिणाम इति । भगवता भणितम्-शृणु।। ___अस्ती व भारते वर्षे काम्पिल्यं नाम नगरम् । तत्र चन्द्रगुप्तो नाम नरपतिभवत् । जगत्सुन्दरी तस्य भार्या । तयोः सुतो रामगुप्तो नाम त्वमिति । एषा च ते उत्तरापथनरेश्वरतारापीठदुहिता हारप्रभा नाम प्रियतमेति । कृतं च त्वयाऽनया सह विषयसुखमनुभवताऽनाभोगत इदम् । उपस्थिते वसन्तसमये गतौ युवां क्रीडितु भवनोद्यानम्। प्रवृत्ता च क्रीडा, मज्जिती भवनदीपिकायाम् । उपस्थितौ तोरसंस्थितेषु कदलीगृहेषु । उपनीतं कुंकुमविलेपनम् । कृतोङ्गरागः । अत्रान्तरे समागतं हंसमिथुनकम् । ततः कौतुकेन सरस कुंकुमविलिप्तहस्तेन गृहीता त्वया हंसिका इतरया हंसक इति । जनितं च तयोविरहदुःखम् । [फसलियाणि' (दे.)] शृङ्गारितौ कुकुमरागण । विमुक्तौ स्तोकवेलायाम्। प्रवृत्तौ अन्योन्यं गवेषयितुम् । कुकुमरागसंगेनचक्रवाकाशङ्कया दर्शनेऽपि परस्परं न प्रत्यभिज्ञातमाभ्याम् । विरहवेदनातुरौ च व्यवसितोमरणम् । प्रवाहितो द्वाभ्यामपि ताभ्यां गृहदाधिकायाभगवान चित्रांगद से पूछा-'भगवन् ! मैंने पहले क्या किया था, जिसका प्रियतमा के विरहरूप अग्नि के सन्ताप के समान यह फल हुआ। भगवान ने कहा-'सुनो इसी भारत देश में काम्पिल्य नाम का नगर है। वहाँ पर चन्द्रगुप्त नाम का गजा हुआ । उसकी पत्नी जगत्सुन्दरी थी। उन दोनों के तुम रामगुप्त नामक पुत्र थे । उत्तरापथ के राजा तारापीठ की यह पुत्री हारप्रभा तुम्हारी पत्नी थी। तुमने इसके साथ विषयसुख का अनुभव करते हुए इसके प्रति असावधानी की। वसन्त का समय उपस्थित होने पर तुम दोनों क्रीड़ा के लिए भवन के उद्यान में गये। दोनों क्रीड़ा करने में प्रवृत्त हुए और भवन की बावड़ी में स्नान किया। दोनों बावड़ी के किनारे कदलीगृह में उपस्थित हुए। केसर का लेप लाया गया। अंगराग (शरीर में चन्दनादि का विलेपन) किया। इसी बीच हंस का जोड़ा आया। तब कौतुक से सरस कुंकुम से लिप्त हाथ से तुमने हंसी और दूसरी (तुम्हारी पत्नी) ने हंस को पकड़ लिया। उन दोनों को विरह का महंचाया, दोनों का केसर के रंग से श्रृंगार किया। थोड़ी देर में दोनों को छोड़ दिया। दोनों एक-दूसरे को खोजने लगे। केसर के रंग के कारण चकवे की आशंका से दिखाई देने पर भी दोनों ने एक-दूसरे को नहीं पहिचाना । विरहवेदना से दोनों ने मरण का निश्चय किया। दोनों ने उसी बावड़ी में अपने आपको प्रवाहित कर दिया १. विवित्तो-क-ग, २. उदिए -का । ३. "महया विभूतीए" इत्यधितः -पुस्तके । ४. तुम्भे-क, । ५. समगु-~। प. TOHN" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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