Book Title: Samraicch Kaha Part 1
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 510
________________ [समराहचकहा घोसिज्जमाणाए वरवरियाए पूरेतो अस्थिजणमणोरहे 'अहो अच्छरीयमहो उत्तिमपुरिसचेट्टियं' ति भणमाणेहि पुलोइज्जमाणो नायरेहि 'अणाहा कायंदी, अयालो य एसो पध्वज्जाए ति जंपमाणीहि सदुक्खं कहकवि दिस्समाणो नायरियाहिं वज्जन्तेण पुण्णाहतूरेण पढ़तेहिं मंगलाई' बंदिवं हि पच्वज्जनिमित्तं निग्गओ नयरीओ राया। पत्तो तेंदुगुज्जाणं । पव्वइओ एसो सणंकुमारायरियसमीवे सह जणणीए पहाणपरियणेण य । कचि वेलं चिट्ठिऊण य वंदिऊण य भयवंतं बाहोल्ललोयणा पविट्ठा कायंदि रायनायरया। अन्नया य समत्ते मासकप्पे विहरिओ भयवं । अहिज्जयं च सत्तं जयाणगारेण । तओ निरइयारं सामण्णमणुवालेतस्स अइक्कंतो कोइ कालो।। इओय 'नवावाइयो पव्वइओ'त्ति जाओ से मच्छरो विजयस्स । पेसिया यणेण कुओइ कालाओ इमस्स नियपच्चयपुरिसा वावायगा । तेहि चिय किनिमित्तं अणिमित्तवावायणं' अवावाइऊण वावाइयो'त्ति निवेइयं विजयस्स । परितुट्ठो खु एसो। अन्नया य 'कयाइ कस्सइ मं दळूण हवेज्ज जिणधम्मपडिबोहोत्ति अवस्सभवियव्वयानिओएण अणुन्नविय गुरुं कइवयसुसाहपरिवारिओ सयलोकेन उदघोष्यमाणया वरवरिकया पूरयन् अथिजनमनोरथान् 'अहो आश्चर्यमहो उत्तमपुरुषचेष्टितम्' इति भणभिः प्रलोक्यमानो नागरकैः 'अनाथा काकन्दी, अकालश्चैष प्रव्रज्यायाः' इति जल्पन्ताभिः सदुःखं कथं कथमपि दृश्यमानो नागरिकाभिः, वाद्यमानेन पूर्णाहतूर्येण पठद्भिमंडलानि वन्दिबन्द्रः प्रव्रज्यानिमित्तं निर्गतो नगर्या राजा। प्राप्तस्तिन्दुकोद्यानम् । प्रवजित एष सनत्कुमाराचार्यसमोपे सह जनन्या प्रधानपरिजनेन च । कांचिद् वेलां स्थित्वा च वन्दित्वा च भगवन्तं वाष्पाद्रलोचनाः प्रविष्टाः काकन्दी राजनागरकाः। अन्यदा च समाप्ते मासकल्पे विहृतो भगवान । अधीतं च सूत्रं जयानगारेण । ततो निरतिचारं श्रामण्यमनुपालयतोऽतिक्रान्तः कोऽपि कालः । इतश्च व्यापादितः प्रवजितः' इति जातश्चाथ मत्सरो विजयस्य । प्रेषिताश्च तेन कृतश्चिकालादस्य निजप्रत्ययितपुरुषा व्यापादकाः। तैरेव किं निमित्तमनिमित्तं व्यापादनम्' इत्यव्यापाद्य 'व्यापादितः इति निवेदितं विजयाय । परितुष्टः खल्वेषः । अन्यदा च 'कदाचित् कस्यचिद् मां दष्टवा भवेद् जिनधर्मप्रतिबोधः' इत्यवश्यभवितव्यतानियोगेनानुज्ञाप्य गुरुं कतिपयसुसाधुपरिवृतः के साथ याचकों के मनोरथ पूर्ण करते हुए, 'ओह ! उत्तम पुरुषों की चेष्टाएँ आश्चर्यकारक हैं," ऐसा कहते हुए नागरिकों द्वारा देखा जाता हुमा राजा प्रव्रज्या के लिए नगर से निकला। उस समय नागरिकाएँ काक हो गयीं, 'यह प्रव्रज्या का समय नहीं है'-ऐसा कहती हुई उसे जिस किसी प्रकार देख रही थीं। पूरी तरह से आहत कर बाजे बजाये जा रहे थे तथा बन्दियों का समूह मंगलपाठ कर रहा था। राजा तिन्दुक उद्यान में आया। माता और प्रधान परिजनों के साथ यह सनत्कुमार आचार्य के पास प्रवजित हो गया। कुछ समय तक ठहरकर और भगवान् की वन्दना कर, आँखों में आंसू भरकर राज्य के नागरिक काकन्दी में प्रविष्ट हुए । एक बार एक माह का नियम समाप्त होने पर भगवान् विहार कर गये। जयमुनि ने सूत्र पढ़ा। अनन्तर निरतिचार यतिधर्म का पालन करते हुए कुछ समय बीत गया। इधर 'यह मारा नहीं गया, प्रवजित हो गया'-इस कारण विजय को द्वेष हुआ। कुछ समय बाद इसने मारने के लिए अपने विश्वस्त पुरुष भेजे । उन्होंने बिना कारण मारने से क्या लाभ ? ऐसा सोचकर बिना मारे ही 'मार दिया, ऐसा विजय से निवेदन किया । यह सन्तुष्ट हो गया। एक बार 'कदाचित् मुझे देखकर किसी को जिनधर्म का बोध हो'-इस प्रकार अवश्य घटित होने वाली भवितव्यता के कारण गुरु की आज्ञा लेकर कुछ १. मंगलपाढ़एहि-क । २. पश्वइओ य-क। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 508 509 510 511 512 513 514 515 516