Book Title: Samraicch Kaha Part 1
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 514
________________ ४५६ वि य विजयतरवई तयप्पभूइमेव महया पावोदएण समुप्पन्नमहावाहिवेयणो 'जओ वावाइओं' ति एइहमेत्तेणमप्पाणं कयत्यं मन्नमाणो अहाउयं पालिऊण दुक्खमच्चुणा मओ समाणो उप्पन्नो पंकप्पहाए पुढवीए दससागरोवमाऊ महाघोरनारओ ति । ॥ पंचमं भवग्गहणं समत्तं ॥ इतरोऽपि च विजयनरपतिस्तत्प्रभृत्येव महता पापोदयेन समुत्पन्नमहाव्याधिवेदनो 'जयो व्यापा. दितः' इति एतावन्मात्रेणात्मानं कृतार्थ मन्यमानो यथायुष्क पालयित्वा दुःखमृत्युना मतः सन्नुत्पन्नः पङ्कप्रभायां पृथिव्यां दशसागरोपमायुको महाघोरनारक इति । इति श्रीयाकिनीमहत्तरासूनु-परमगुणानुरागि-परमसत्यप्रियश्रीहरिभद्राचार्यविरचितायां समरादित्यकथायां संस्कृतानुवादे पञ्चमभवग्रहणं समाप्तम् ।। उदय से, जिसे महान् व्याधि उत्पन्न हो गयी है-ऐपा होता हुआ, 'जय मारा गया' इतने मात्र से ही अपने आपको कृतार्थ मानकर, आयु पूरी कर दुःखपूर्ण मृत्यु से मरकर, पंकप्रभा पृथ्वी में दश सागर की आयु वाला महाघोर नारकी हुआ। इस प्रकार याकिनी महत्तरा के पुत्र, परमगुणों के अनुरागी, सत्यप्रिय श्री हरिभद्राचार्यविरचित समरादित्य कथा का पांचवां भवग्रहण समाप्त हुआ। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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