Book Title: Samraicch Kaha Part 1
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 500
________________ ४४२ [समराइचकहा वीओ उत्तरणं, उत्तिण्णाण वा कत्थ गमणं ति । भयवया भणियं-सुण । एत्थ अडवी दुविहा, दवाडवी भावाडवी य । ताथ दवाडवोए ताव उदाहरणं । जहा कुओ वि य नयराओ कोइ सत्थवाहो पुरंतरं गंतुकामो घोसणं कारेई 'जो मए सह अमुगं पुरं गच्छइ, तमहं निद्देसकारिणं अविग्घेण पावेमित्ति'। निसामिऊण तमाघोसणं पयट्टा तेण सह बहवे सत्थिया। तओ सो तेसि पंथदोसगुणे कहेइ। भो भो सत्थिया, एत्य खलु एगो पंथो उज्जुिओ, अवरो मणागमणुज्जुओ, तत्थ जो सो अणज्जओ, तेण सुहयरं गम्मइ, परं बहुणा य कालेण, पज्जते वि उज्जयं ओयरिऊण इच्छियपुरं पाविज्जइ । जो पुण उज्जुओ, तेण दुक्खयरेण गम्मइ लहं च पाविज्जइ, जम्हा सो अतीव विसमो संकडो य । तत्थ खलु ओयारे चेव अच्चंतभीसणा अहिलसियपुरसंपत्तिविग्घहेयवो दुवे वर्षासंघा परिवसंति । ते य ओयरि चेव नो पयच्छति । तओ ते पुरिसयारेण उद्धंसिऊण ओरियन्वं । ओइण्णाण वि य ताव अणुवति । जाव अहिलसियपुरसमीवं । उम्मग्गलग्गं च पाणिणं वावाएंति; मग्गलग्गस्स य न पहवंतित्ति । रुक्खा य एत्थ एगे मणोहरा सिणिद्धपत्तला सुरहिकुसुमसोहिया सीयलच्छाया, अन्ने य वाटवीत उत्तरणम्, उत्तीर्णानां वा कुत्र गमनमिति । भगवता भणितम्-शृण । अत्राटवी द्विविधा, द्रव्याटवी भावाटवी च । तत्र द्रव्याटव्यां तावदुदाहरणम् । यथा कुतोऽपि च नगरात् कोऽपि सार्थवाहः पुरान्तरं गन्तुकामो घोषणं कारयति 'यो मया सहामुकं पुरं गच्छति तमहं निर्देशिकारिणमविघ्नेन प्रापयामि' इति । निशम्य तदाघोषणं प्रवृत्तास्तेन सह बहवः साथिकाः । ततः स तेभ्यः पथदोषगुणान् कथयति-भो भो: साथिका: ! अत्र खल्वेकः पन्था ऋजकः, अपरो मनागनजुकः । तत्र यः सोऽनजकः तेन सूखतरं गम्यते, परं बहुना च कालेन, पर्यन्नेऽपि ऋजुकमवतीर्य ईप्सितपुरं प्राप्यते । यः पुनऋजुकस्तेन दुःखतरेण गम्यते, लघु च प्राप्यते, यस्मात् सोऽतीव विषम सङ्कटश्च । तत्र खल्वतारे एवात्यन्त भीषणावभिलषितपुरसम्प्राप्तिविघ्नहेतु द्वौ व्याघ्रसिंहौ परिवसतः । तो चावतरितुमेव न प्रयच्छतः । ततस्तौ पुरुषकारेण उद्ध्वस्यावतरितव्यम् । अवतीर्णानामपि च तावदनुवर्तेते यावदभिलषितपुरसमीपम् । उन्मार्गलग्नं च प्राणिनं व्यापादयतः, मार्गलग्नस्य च न प्रभवत इति । वृक्षाश्चात्र एके मनोहरा: स्निग्धपत्राः सुरभिकुसुमशोभिता: शोनलच्छायाः, अन्ये च परिशटितपाण्डुपत्राः कुसुमसंसार रूपी वन को कैसे पार किया जा सकता है और पार हुओं का कहाँ गमन होता है ?' भगवान् ने कहा - 'वन दो प्रकार के होते हैं-द्रव्यवन और भाववन । द्रव्यवन का उदाहरण देते हैं जैसे किसी नगर से कोई व्यापारी दूसरे नगर को जाने की इच्छा करता हआ घोषणा कराता है जो मेरे साथ अमूक नगर को जायेगा उस निर्देश कारी को मैं बिना विघ्न के पहुंचा दूंगा।' उसकी घोषणा सुनकर बहुत से व्यापारी तैयार हो गये । तब वह उनसे रास्ते के दोष-गुणों को कहता है--हे हे व्यापारियो ! यहाँ पर एक पथ सरल है, एक थोड़ा कठिन है । उसमें जो कठिन है, उससे सुखपूर्वक गमन होता है, किन्तु बहुत काल में अन्त में सरल मार्ग को पाकर अभीष्ट को प्राप्त होते हैं। जो सरल है, उससे दःखपूर्वक जाया जाता है, किन्त जल्दी ही पहुंच जाते हैं। (दुःख पूर्वक गमन इसलिए होता है, क्योंकि वह अत्यन्त विषम और संकीर्ण है। उसमें उतरते ही अभिलषित नगर प्राप्ति में विघ्न के कारण अत्यन्त भीषण दो व्याघ्र-सिंह हैं । वे उतरने ही नहीं देते हैं तब पुरुषार्थ के द्वारा उन्हें नष्ट कर प्रयत्नपूर्वक उतरना चाहिए ।पार करने वालों के वे तब तक पीछे लगे रहते हैं जब तक अभिलषित पुर के समीप न आ जाओ। उन्मार्गगामी पुरुष को ये मार डालते हैं, मार्ग में जाने वाले को मारने में ये समर्थ नहीं होते हैं ? यहाँ वृक्ष भी कुछ मनोहर, चिरुने पत्तों वाले, सुगन्धित फूलों से सुशोभित और शीतल छाया वाले हैं, १. पराणेमिक । २. दुक्खयर-क। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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