Book Title: Samraicch Kaha Part 1
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 505
________________ पंचमो भवो ] ४४७ ओहरा मलय मेहला विय चंदणगंधवाहिणी वसंतलच्छी विय रुइरपत्ततिलयाहरणा' पडिहारी । ती यदुहाविरिक्कसंघडियकमल संपुडेण विय मत्थयावस्थिएण अंजलिगा पणामं काऊण विणत्तो राया । देव एसा खु ते जणणी केणावि कारणेण देवदंसण महिलसंती पडिहारभूमीए चिट्ठइ । तओ ससंभ्रमं 'चिट्ठह तुम्भे' त्ति भणंतो रामसंघायं उट्टिओ राया । गओ दुवारभागं । पणमिआ जगणी, भणिया य-अंब, किं न सद्दाविओ अहं, किंवा आगमण ओयणं । तओ परुइया एसा । भणियं च ण-अंब, किं निमित्तमिमं । तीए भणियं -ज - जाय, सुयसिणेह संवड्ढियसोयाणलवियारो'; ता देहि मे पुतजीवियं । राइणा भणियं - अंब, कुओ भयं कुमारस्स । तीए भणिय - जाय, ठिई एसा पयापरिवालज्जया नरवईणं, जं पडिवक्खभूओ महया जत्तेण रविखज्जइ । तओ सो कुमारो 'मा अन्नसामंतपयारिओ संपयं अद्दिविस्सइ' त्ति गहिओ रज्जचितएहि, अणुमयं च मे एयं । कि पुग जहा तस्स सरीरे पाओ न हवइ, तहा तए जइयव्वं ति । राइणा भणियं - अंब, कि पडिवक्खभूओ मे कुमारो; जइ एवं ता को उण सपक्खो त्ति । ता किं एइणा । एहि, अमितरं पविसम्ह । पविठ्ठो राया । उव 1 मलयमेखलेव चन्दनगन्धवाहिनी वसन्तलक्ष्मीरिव रुचिरपचतिलकाभरणा प्रतीहारी । तया च द्विधाविरिक्त (विभक्त) सङ्घटित कमलसम्पुटेनेव मस्तकावस्थितेन अञ्जलिना प्रणामं कृत्वा विज्ञप्तो राजा । देव ! एषा खलु ते जननी केनापि कारणेन देवदर्शनमभिलषन्ती प्रतिहारभूमौ तिष्ठति । ततः सम्भ्रमं तिष्ठत यूयम्' इति भणन् राजसङ्घातमुत्थितो राजा । गतो द्वारभागम् । प्रणता 'जननी भणिताच - अम्ब ! किं न शब्दयितोऽहम्, किं वाऽऽगमनप्रयोजनम् । ततः प्ररुदितैषा । भणितं च तेन - अम्ब ! किं निमित्तमिदम् । तया भणितम् - जात ! सुतस्नेहसंवर्धितशोकानलविकारः, ततो देहि मे पुत्रजीवितम् । राज्ञा भणितम् - अम्ब ! कुतो भयं कुमारस्य । तया भणितम् -- जात ! स्थितिरेषा प्रजापरिपालनोद्यतानां नरपतीनाम्, यत्प्रतिपक्षभूतो महता यत्नेन रक्ष्यते । ततः स कुमारो ' मा अन्य सामन्तप्रतारितः साम्प्रतमभिद्रविष्यति' इति गृहीतो राज्यचिन्तकैः, अनुमतं च मयैतद् । किं पुनर्यथा तस्य शरीरे प्रमादो न भवति तथा त्वया यतितव्यम् । राज्ञा भणितम् - अम्ब ! किं प्रतिपक्षभूतो मे कुमार:, यद्येवं ततः कः पुनः स्वपक्ष इति । ततः किमेतेन । एहि, अभ्यन्तरं प्रविशावः । तिलक और आभरणवाली थी अर्थात् जिस प्रकार वसन्तलक्ष्मी सुन्दर पत्ते और तिलकवृक्ष रूपी आभरण से युक्त होती है, उसी प्रकार वह भी सुन्दर पत्र रचना और तिलक से अलंकृत थी । उसने मस्तक पर रखे हुए, दो भागों में विभक्त मिले हुए कमल के सम्पुट के समान हाथ जोड़कर, प्रणाम कर राजा से निवेदन किया- "महाराज ! आपकी माता किसी कारण आपके दर्शन की अभिलाषा करती हुई द्वारभूमि पर खड़ी हैं ।" तब शीघ्र ही, 'आप लोग ठहरिए' कहता हुआ राजा राजसमूह के साथ उठ खड़ा हुआ । द्वार पर गया । माता को प्रणाम किया और कहा, 'माता ! मुझे क्यों नहीं बुला लिया अथवा आने का क्या प्रयोजन है ?' तब वह रोने लगी । उसने कहा'माता ! किस कारण से रो रही हो ?' वह बोली - 'पुत्र ! अतः मुझे पुत्र का जीवन दो ।' राजा ने कहा, 'माता ! कुमार तत्पर राजाओं की ऐसी स्थिति है कि वे से ठगाया गया इस समय भाग न जाय' इसकी अनुमति दे दी। अधिक क्या ? जिससे उसके शरीर में प्रमाद न हो, वैसा आप यत्न करें ।' राजा ने कहा'माता ! क्या कुमार मेरा प्रतिपक्षी है ? यदि ऐसा है तो स्वपक्ष कौन है ? अतः इससे क्या ? आओ, भीतर प्रवेश पुत्र- स्नेह से बढ़े शोकाग्निरूप विकार से रो रही हूँ को कैसा भय ?' उसने कहा - 'पुत्र ! प्रजा- पालन में प्रतिपक्षी की बड़े यत्न से रक्षा करते हैं । अतः इस कारण राज्य की चिन्ता करने वालों ने उसे - 1. रुइरेयत्ति तिलपापहरणा । २ किनिमितो एस सोभो । ३. वसवदिनो एसो सोमानल Jain Education International For Private & Personal Use Only कुमार 'अन्य सामन्तों पकड़ लिया और मैंने www.jainelibrary.org

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