Book Title: Samraicch Kaha Part 1
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 492
________________ ૪૪ [ समराइच्चर हां चंडसीसेन्नं । उट्ठियं अगंगरइबनं । वो अहं समरसेव्यमुह विज्जाहरनरिदसहिओ धाविओ अहिमुहं अगरइबलस्स । अबडियं तेण समं महसमरं मुक्कतियसकुसुमोहं । भिडसंघडिय डोहसंकुलं तक्खणं चेव ॥४७३॥ आण्णावदियजीव कोडिचन कलियचाव मुक्के हि । अप्ण्णं गयणयनं सरेहि घणजलहरेहिं व ॥ ४७४॥ अन्नोन्नावडणखणखणंतक 'वाल निवहसंजणिओ । तडिनियरो व्व समंता विषय रिओ सिहिफुलिंगोहो || ४७५ ॥ । - मट्ठा य विमाणाणं खुरुप्पनिय देहि तक्खणं छिन्ना । सरघणजालं तरिया धवलध्या रायहंस व्व ॥ ४७६ ॥ कुंग्गभिन्ननिद्ददप्पियविज्याहरी ससंघाया । वरिसंति रुहिरवरिसं भयजणया पलयमेह व्व ॥ ४७७ ।। र्घोषसनाथ उद्दामकलकलः । भग्नं चण्डसिंह सैन्यम् । उत्थितमनङ्गरतिबलम् । ततोऽहं समरसेनप्रमुखविद्याधरनरेन्द्रसहितो धावितोऽभिमुखमनङ्गरतिबलस्य । आपतितं तेन समं महासमरं मुक्तत्रिदृशकुसुमोघम् । प्रतिभट संघटितभटौघसंकुलं तत्क्षणमेव ॥ ४७३॥ आकर्षित जीवाकोटिचको कृतचापमुक्तैः । आक्रान्तं गगनतलं शरैर्घन जलध रैरिव ॥ ४७४॥ अन्योन्यापतन खणखणायमानकर वालनिवह सञ्जनितः । तडिन्निकर इव समन्ताद् विस्फारितः शिखिस्फुलिङ्गौघः ॥४७५।। नष्टाश्च विमानानां क्षरप्रनिवतैस्तत्क्षणं छिन्नाः । शरघनजालान्तरिता धवलध्वजा राजहंसा इव ॥ ४५६ ॥ कुन्ताग्रभिन्ननिर्दयदर्पितविद्याधरेशसंघाताः । वर्षन्ति रुधिरवर्ष भयजनकाः प्रलयमेघा इव ॥ ४७७ कलकल शब्द उठा । चण्डसिंह की सेना नष्टभ्रष्ट हो गयी । अनंगरति की सेना बढ़ी। अनन्तर में समरसेन - प्रमुख विद्याधर राजाओं के साथ अनंगरति की सेना के सामने दौड़ा । Jain Education International उसके साथ ( मेरा ) महायुद्ध हुआ । देवताओं ने फूल बरसाये । उसी क्षण योद्धागण प्रतिपक्षी योद्धाओं से भिड़ गये । कान तक खींची हुई धनुष की प्रत्यंचा के कारण चक्रीकृत धनुष से आकाश को व्याप्त करने वाले मेघों के समान बाण छोड़े गये। एक-दूसरे पर छोड़ी हुई तलवारों का समूह बिजलियों के समूह के समान खन-खन शब्द करने लगा और उनसे अग्नि की चिनगारियों का समूह निकलने लगा । उस समय बाणरूपी बादलों के बीच राजहंसों के समान सफेद ध्वजाएँ विमानों के निचले भाग से कट गयीं और नष्ट हो गयीं । कुन्तों के अग्रभाग से कटे हुए निर्दय और घमण्डी विद्याधर राजाओं के समुदाय प्रलयकालीन मेघों के समान भयकारक विर की वर्षा करने लगे ।।४७३- ४७७ ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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