Book Title: Samraicch Kaha Part 1
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 495
________________ पंचमो भवो ] विज्जाहरीसरे हि तत्थ रज्जे । ठावियाओ नीईओ । वीणा इव दिया । तओ समं कइवय विज्जाहरेहिं विलासवईए य गओ गुरुजणवंसणत्थं । बंदिया तेसि चलणा । जणिओ विभूइदंसणेण आणंदो । विलासवईनिग्गमणदुहिओ य सिद्धाएसमुनियसयल वृत्तंतो तप्पभूइ कुविओ अणंगवईए गंतूण सविनयं पसाइओ ईसाणचंदो | एवं गमिऊण कइवयदिय समागओ नियय रज्जे । अइक्कंतो कोइ कालो रज्जसुहह्मणुहवंतस्स । अन्नयाय मेरु व्व तुंग्याए घणतमालभमररंजणस रिसदेहच्छवी एरावणसरिसो चउदंतमुसलो रिमामावसेसाए रयणीए विट्ठो विलासवईए सुहपसुत्ताए सुमिणयम्मि सयललक्खणोवबेओ वयणेमुयरं पविसमाणो महागइंदो त्ति । सुहपडिबुद्धा एसा, साहिओ य हरिसवसुप्फुल्ललोयणाए देवीए ममं । भणिया एसा मए - सुन्दरि, सयलविज्जाहरनमिओ विज्जाहरचक्कबट्टी पुत्तो ते भविस्सइ । परियमिमी तयप्पभिदं विसेसेण तिवग्गसंपायणरयाए अइक्कंता नव मासा अद्धट्टमाणि य इंदियाणि । तओ सुपसत्थतिहिमुहुत्ते जाओ सुओ । वद्धाविओ अहं मंजरियाभिहाणाए दासचेडीए । ४३७ राज्ये । स्थापिता नीतयः । व्यतिक्रान्ताः कतिपयदिवसा । ततः समं कतिपयविद्याधरैविलासवत्या च गतो गुरुजनदर्शनार्थम् । वन्दितास्तेषां चरणाः । जनितो विभूतिदर्शनेनानन्दः । विलासवती निर्गमनदुःखितश्च सिद्धादेशज्ञातसकलवृत्तान्तस्तत्प्रभृति कुपितोऽनङ्गवत्यै गत्वा सविनयं प्रसादित ईशानचन्द्रः । एवं गमयित्वा कतिपयदिवसान् समागतो निजराज्ये । अतिक्रान्तः कोऽपि कालो राज्य सुखमनुभवतः । अन्यदा च मेरुरिव तुङ्गतया घन-तमाल-भ्रमराञ्जनसदृश देहच्छविरैरावणसदृशश्चतुदन्त मुशलश्चरमयामावशेषायां रजन्यां दृष्टो विलासवता सुखप्रसुप्तया स्वप्ने सकललक्षणोपेतो वदनेनोदरं प्रविशन् महागजेन्द्र इति । सुखप्रतिबुद्धेषा कथितश्व हर्षवशोत्फुल्ललोचनया देव्या मम । भणितैषा मया - सुन्दरि ! सकलविद्याधरनतो विद्याधरचक्रवर्ती पुत्रस्ते भविष्यति । | प्रतिश्रुतमनया । तत्प्रभृति विशेषेण त्रिवर्गसम्पादन रतायाऽतिक्रान्ता नव मासा अर्धाष्टमानि च रात्रिदिवानि । ततः सुप्रशस्त तिथिमुहूर्ते जातः सुतः । वर्धापितोऽहं मञ्जरिकाभिधानया दासचेटया । दत्तं पारितोषि सेनाओं के विद्याधर राजाओं ने उस राज्य पर मेरा अभिषेक किया, नीतियाँ स्थापित कीं । कुछ दिन बीत गये । अनन्तर कुछ विद्याधरों और विलासवती के साथ गुरुजनों के दर्शन के लिए गया । उनके चरणों की वन्दना की। विभूति के दर्शन से उन्हें आनन्द हुआ । विलासवती के निर्गमन से दुःखित सिद्धादेश से समस्त वृत्तान्त को जानने वाले और तभी से अनंगवती से कुपित (महाराज) ईशानचन्द्र को विनयपूर्वक जाकर प्रसन्न किया । इस प्रकार कुछ दिन बिताकर अपने राज्य में आये । राज्य-सुख का अनुभव करते हुए कुछ समय बीता । एक बार सुखपूर्वक सोयी हुई विलासवती ने रात्रि का अन्तिम प्रहर शेष रह जाने पर, स्वप्न में समस्त लक्षणों से युक्त हाथी, मुंह में प्रवेश करता हुआ देखा। वह हाथी ऊंचाई में मेरु के समान था । उसके शरीर को शोभा घन, तमाल, भौंरे अथवा अंजन के समान थी और ऐरावत के समान उसके चार बड़े-बड़े दांत थे । विलासवती सुखपूर्वक जाग गयी, हर्षवश विकसित नेत्रों वाली देवी (महारानी) ने मुझसे कहा। मैंने उसे बताया-'सुन्दरी ! समस्त विद्याधरों के द्वारा नत तुम्हारा विद्याधर चक्रवर्ती पुत्र होगा ।' उसने स्वीकार किया । उसी समय से विशेष रूप से धर्म, अर्थ और काम के सम्पादन में रत रहते हुए इसके नव माह साढ़े आठ रात्रि-दिन व्यतीत हो गये । अनन्तर शुभ तिथि और मुहूर्त में पुत्र उत्पन्न हुआ। मंजरिका नामक दासी ने मुझे बधाई Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516