Book Title: Samraicch Kaha Part 1
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 488
________________ समराहच्चकहा चंडसीहस्स कुसुमवरिसं । तओ विणिज्जिए सेणावइम्मि चडिओ अहं' वेयडपवयं, गओ रहने उरचक्कवालउरविसयं । पेसिया मए अणंगर इसमीवं दुवे विज्जाहर। । भणिया य एए-भजह तं अणंगरइं, नहा किमणेण अप्पोययमीणचेट्टिएण; मोतूणरज्ज तवोवणं वा जाहि, ममासमकोहिंधणुप्पन्नसत्थाणलग्गाहुई चा हवाहि त्ति । गया ते मम चरणजुयलं वंदिउं। आगया थेववेलाए। भणियं च तेहिदेव, अणुचिट्ठियं देवसासणं अम्हेहि । भणिओ जहाइट्ठमेव देवेण अणंगरई। कुविओ य एसो। समाहयं धरणिविठं । अरे धरणिगोयर, अहं तव सत्थाणलग्गाहुई हवामि' न उण तुमं ममं ति; ता कि एइणा, थेवमेत्थमंतरं ति । भणिऊण समाइट्ठं च तेण। देह सन्नाहभेरि रएह' सगडवहं; अइभूमिमागओ धरणिगोयरो त्ति । तओ आया भेरी, निसामिओ भेरीरवो अणेगहा सेणिगेहिं । पढम भयहित्थलोयहिं कुपुरिसेहि: आसन्नविरहूसुयगलंतबाहाहिं सेणाभडीहिं. चिररूढफुडियवणकंदरेहि रणरहसुन्भिज्जमाणपुलएहि सामिसुकयपडिमोयणासयण्हेहिं सुहडेहि,पढमरणदसणूसुएहि रायकुमारेहि, रवः । विमुक्तं सुरसिद्धरुपरि चण्डसिंहस्य कुसुमवर्षम् । ततो विनिजिते सेनापती आरूढोऽहं वैताढ्यपर्वतम्, गतो रथनूपुरचक्रवालपुरविषयम् । प्रेषितो मयाऽनङ्गरतिसमीपं द्वो विद्याधरौ। भणितो चेतौ-भणत तमनङ्गरतिम्, यथा किमनेन अल्पोदकमीनचेष्टितेन, मुक्त्वा राज्यं तपोवनं वा याहि, ममासमक्रोधेन्धनोत्पन्नशस्त्रानलाग्रहुतिर्भवेति । गतौ तौ मम चरणयुगलं वन्दितुम । आगतौ स्तोकवेलायाम्। भणितं च ताभ्याम्-देव ! अनुष्ठितं देवशासनमावाभ्याम् । भणितो यथादिष्टमेव देवेनानङ्गरतिः । कुपितश्चैषः । समाहतं धरणीपृष्ठम् । अरे धरणीगोचर ! अहं तव शस्त्रानलाग्राहुतिर्भवामि न पुनस्त्वं ममेति, ततः किमेतेन, स्तोकमत्रान्तरमिति । भणित्वा समादिष्टं च तेन । दत्त सन्नाहभेरीम्, रचयत शकटव्यूहम् । अतिभूमिमागतो धरणीगोचर इति । तत आहता भेरी, निाश मितो भेरीरवोऽनेकधा सैनिकः (श्रेणिगैः ?) । प्रथमं भयत्रस्तलोचनः कापुरुषः, आसन्नविरहौत्सुक्यगल द्वाष्पाभिः सेनाभटोभिः, चिररूढस्फुटितवणकन्दरै रणरभसोदभिद्यमानपुलकैः स्वामिसुकृतप्रतिमोचनासतृष्णः सुभटैः, प्रथमरणदर्शनोत्सुकैः राजकुमारैः: निजतब सेनापति को जीत लेने पर हम वैताढ्य पर्वत पर आरूढ़ हुए और रथनूपुरचक्रवाल देश को गये। मैंने अनंगरति के पास दो विद्याधर भेजे। इन दोनों से कहा-'अनंगरति से कहो कि थोड़े जल में मछली की चेष्टा के समान चेष्टा करना व्यर्थ है। राज्य को छोड़ कर या तो तपोवन में जाओ अथवा मेरे विषम क्रोधरूपी इंधन से उत्पन्न शस्त्ररूपी अग्नि की आहति होओ।' वे दोनों मेरे चरणयुगल की वन्दना कर गये। थोडीही देर में लोट आये । उन दोनों ने कहा- 'महाराज ! आपकी आज्ञा का पालन हम दोनों ने कर दिया। जैसा महाराज ने आदेश दिया था वैसा अनंगरति से कह दिया। वह कुपित हो गया। पृथ्वी को दबाकर 'अरे भूमिगोच तुम्हारे शस्त्ररूपी अग्नि की ज्वाला में आहुति होऊँगा, तुम मेरे शस्त्ररूपी अग्नि की ज्वाला में आहुति नहीं होगे ? अतः इससे क्या, थोड़ी ही देर है-' ऐसा कहकर उसने आज्ञा दी-'युद्ध की भेरी बजाओ, शकटव्यूह की रचना करो। भूमिगोचर पृथ्वी का अतिक्रमण कर आया है।' अनन्तर भेरी बजायी गयी, अनेक प्रकार के सैनिकों (श्रेणी के लोगों) ने भेरी का शब्द सुना । पहले भय से त्रस्त नेत्रों वाले कायर पुरुषों ने सुना, (अनन्तर' समीप में विरह की उत्सुकता के कारण आँसू छोड़ने वाले सैनिकों ने सुना, (अनन्तर) जिनका खुले हुए घाव का गड्ढा भर गया है और रण के वेग से जिन्हें रोमांच हो आया है तथा स्वामी के उपकारों का बदला चुकाने के इच्छुक सुभटों ने सुना । (अनन्तर) पहले-पहले रण के लिए उत्सुक राजकुमारों ने (पश्चात्) अपने कार्य का सम्पादन 1. है-ख । २. होमिक । ३. वुण-के । ४. भणिया य एते, देहि-ख । ५. रएहि-ख । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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