Book Title: Samraicch Kaha Part 1
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 489
________________ पंचमो भयो] नियोगसंपायणतुरिएहि निओयकारीहिं। पवत्तं सन्नझिउं अणंगरइबलं । दित्तोसहिपरिगया विय सेलकूडा ढोइज्जंति कंचणसन्नाहा, दुज्जणवाणीओ विअ भेयकरीओ आणीयंति भल्लीओ जमजोहासन्निगासाओ सुहडजणरुहिरलालसाओ सुबहुजणजीवियहरीओ पायडिज्जति असिलट्ठीओ, वेसित्थियाओ विय एणनिबद्धाओ वि पयइकूडिलाओ धणहीओ, खलजणालावा विय मम्मघट्टणसमत्था य नाराया, असणिलयासन्निगासाओ य गयाओ। एवं च उवणीयमाणेहि समरोवगरणेहि केणावि "पियय मापओहरफंसरुभओ' त्ति न कओ सन्नाहो सरीरम्मि, अन्नेण समरसुहबद्धराएण थोरंसुयं असई रुयंती विन गणिया पिययमा, अन्नेण तक्खणसिढिलवलया वियलियकंचिदामा नयणनिग्गयवाहसलिला मंगलविलक्खहसिएहि अवहीरयंती गाढसंतावं 'एसो अहं आगओ' त्ति समासासिया पिययमा, अन्नस्स गमणुस्सुयस्स पाणभरियं वड्यं पियावयणसमप्पियं पीयमाणं पि तीए सुट्ट्यरं भरियमंसुएहिं, अन्नाए य निग्गच्छमाणे पिययमे मुच्छाए चेव दंसिओ अणुराओ। एवं च वदमाणे अणंगरइबले समागया अम्हे । संपयं देवो पमाणं ति । नियोगसम्पादनत्वरितैनियोगकारिभिः। प्रवृत्तं सन्नद्धमनङ्गरतिबलम्। दिप्तौषधिपरिगता इव शैलकूटा ढोक्यन्ते काञ्चनसन्नाहाः, दुर्जनवाण्य इव भेदकर्य आनीयन्ते भल्लयः, यमजिह्वासन्निकाशाः सुभटजनरुधिरलालसाः सुबहुजनजीवितहर्यः प्रकट्यन्तेऽश्लिष्टयः, वेश्यास्त्रिय इव गुणनिबद्धा अपि प्रकृतिकुटिला धनुषः । खलजनालापा इव मर्मघट्टनसमर्थाश्च नाराचाः, अशनिलतासन्निकाशाश्च गदाः । एवं चोपनीयमानैः समरोपकरणः केनापि 'प्रियतमापयोधरस्पर्शरोधकः' इति न कृतः सन्नाहः शरीरे, अन्येन तत्क्षणशिथिलवलया विचलितकाञ्चीदामा नयननिर्गतवाष्पसलिला मङ्गलविलक्षहसितैरवघोरयन्ती गाढसन्तापं 'एषोऽहमागतः' इति समाश्वासिता प्रियतमा, अन्यस्य गमनोत्सुकस्य पानभृतं वर्तकं (वटाका) प्रियावदनसमर्पितं पीयमानमपि तया सुष्ठुतरं भृतमश्रुभिः । अन्यया च निर्गच्छति प्रियतमे मूर्च्छयैव दर्शितोऽनुरागः । एवं च वर्तमानेऽनङ्गरतिबले समागता वयम् । साम्प्रतं देवः प्रमाणमिति। करने के लिए शीघ्रता करने वाले कार्यरत लोगों ने सुना-अनंगरति की सेना युद्ध करने के लिए तैयार होने लगी। दीप्त औषधियों से घिरे हुए पर्वतशिखरों के समान स्वण के कवच ढोके जा रहे थे, दुर्जनों की वाणी के समान छेद करने वाले भाले लाये जा रहे थे, योद्धाओं के खून की लालसा वाली यम की जीभ के समान बहुत से अच्छे लोगों के जीवन को हरने वाली सुन्दर तलवारें प्रकट की जा रही थीं। वेश्या स्त्रियाँ गुणी व्यक्ति के संसर्ग होने पर भी जिस प्रकार स्वभाव से कुटिल होती हैं, उसी प्रकार धनुष डोरी से बंधे होने पर भी प्रकृति से कुटिल थे। दुष्टजनों की वाणी जिस प्रकार मर्म को छेदन करने में समर्थ होती है, उसी प्रकार बाण मर्मवेदन करने में समर्थ थे। गदाएँ वज्रलता के समान थीं। इस प्रकार युद्ध के उपकरण लाये जाने पर किसी ने प्रिया के स्तनों के स्पर्श में रुकावट डालने वाला है-ऐसा सोचकर शरीर में वज्र धारण नहीं कि उसी क्षण जिसका कंगन ढीला पड़ गया था, करधनी खिसकने लगी थी, आँखों से आंसू निकल रहे थे, मंगल हेतु विलक्षण हंसी हंसती हुई जो गाढ़ सन्ताप की अवहेलना कर रही थी, ऐसी प्रियतमा को 'यह में आ गया'-ऐसा कहकर आश्वासन दिया । जाने के इच्छुक (किसी) दूसरे के द्वारा मद्यपूर्ण पात्र (वड्ढय) प्रिया के मुख को समर्पित किये जाने पर और उसे पी लेने पर भी उसने उसे पूरी तरह आँसुओं से भर दिया । किसी दूसरी स्त्री ने प्रियतम के जाने पर मूर्छा द्वारा ही आना अनुराग दिखलाया। अनंगरति की ऐसी स्थिति में रहते हुए हम लोग आ गये। अब महाराज प्रमाण है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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