Book Title: Samraicch Kaha Part 1
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 483
________________ पंचमो मयो] ४२५ संजाओ भूमिकंपो, निवडियाओ उक्काओ, समुब्भूओ निग्धाओ । भणिओ य तीए अणंगरई - भो भो न तं इमं संपत्तविज्जाहरनारदसद्दस्स कावुरिसचेट्ठियं । तओ नियत्तो सो इमाओ ववसायाओ काएण, न वुण चित्तेण । पयलियाए' य नयरदेवयाए पुणो नयरविणासो आसित्ति संजायसंकेहि पत्थुयं संतिगग्मं नायर एहि । तओ मए भणियं - कहिं पुण सा इत्थिया चिट्ठइ । तेण भणियं-नरिदभवणुज्जाणे सहयारपायवतले ति । तओ मए नाइदूरदेसवत्तिणा गयणयलसंठिएण निरूविया देवी । दिट्ठा य अणेय विज्जाहरी वंद्र मज्झगया वामकरयलपणा मियवयणकमल मुव्वहंति त्ति । आरक्खि विज्जाहर संबाहभावओ आणाएसओ य देवस्स न गओ तीए समीवं । आगओ' इहई एयं च सोऊण देवो पमाणं ति । तओ मए पुलइओ वसुभूई । भणियं च तेण -- भो वयस्स, इमं ताव एत्थ पत्तकालं । नयरदेवओवसेण लज्जिओ खुसो राया । ता पेसे हि से सामपुव्वगमेव देवीजायणनिमित्तं कंचि दूयं ति । तओ बंभयत्तेण भणियं - सदाराणयणे वि दूयसंपेसण मपुव्वो सामभेओ । समरसेणेण उत्तं- तस्स वि दूयसंपेसणं ति महंतो अणक्खो । वाउवेगेण भणियं-न संपन्नमहिलसियं । वाउमित्तेण भणियं देवो भूमिकम्प:, निपतिता उल्काः समुद्भूतो निर्घातः । भणितश्च तयाऽनङ्गरतिः भो भो न युक्तमिदं सम्प्राप्त विद्याधरनरेन्द्रशब्दस्य कापुरुषचेष्टितम् । ततो निवृत्तः सोऽस्माद् व्यवसायात् कायेन न पुनश्चित्तेन । प्रचलितायां (प्रज्वलितायां ? ) च नगरदेवतायां पुनर्नग रविनाश आसीदिति सञ्जाताशङ्खः प्रस्तुतं शान्तिकर्म नागरकैः । ततो मया भणितम् - कुत्र पुनः सा स्त्री तिष्ठति । तेन • भणितम् - नरेन्द्रभवनोद्याने सहकारपादपतले इति । ततो मया नातिदूरदेशवर्तिना गगनतलसंस्थितेन निरूपिता देवी । दृष्टा चानेकविद्याधरीवन्द्रमध्यगता वामकरतलन्यस्तवदनकमलमुद्वहन्तीति । आरक्षकविद्याधरसम्बाधभावतोऽनादेशतश्च देवस्य न गतस्तस्याः समीपम् । आगत इह । एतच्छ्र ुत्वा देवः प्रमाणमिति । ततो मया दृष्टो वसुभूतिः । भणितं च तेन - भो वयस्य ! इदं तावदत्र प्राप्तकालम् । नगरदेवतोपदेशेन लज्जितः खलु स राजा । ततः प्रेषय तस्य सामपूर्वकमेव देवीयाचननिमित्तं कञ्चिद् दूतमिति । ततो ब्रह्मदत्तेन भणितम् - स्वदारानयनेऽपि दूतसम्प्रेषणमपूर्वः सामभेद: । समरसेनेनोक्तम् - तस्यापि दूतसम्प्रेषणमिति महान् ( अणक्खो दे ) अपवादः । वायुवेगेन भणितम-न हुई। भूमि काँप उठी, उल्काएँ गिर पड़ीं, आँधी उठी । उस महाकाली विद्या ने अनंगरति से कहा- 'अरे ! विद्याधरों के राजा शब्द को प्राप्त हुए तुम्हें अर्थात् विद्याधरों के राजा होकर तुम्हें कायर पुरुषों जैसी चेष्टा करना उचित नहीं है । अतः वह इस कार्य से शरीर से अलग हो गया, चित्त मे नहीं। नगर देवी के चले जाने पर पुन: नगर विनाश की आशंका से नागरिकों ने शान्तिकर्म प्रस्तुत किया । तब मैंने कहा - 'वह स्त्री कहाँ है ?' उसने कहा- 'राजा के भवन के उद्यान में आम के वृक्ष के नीचे है ।' तब मैंने समीपवर्ती आकाश में स्थित होकर देवी को देखा । उसे अनेक विद्याधरियों के समूह के बीच बायीं हथेली पर मुखकमल को धारण किये हुए देखा । रखवाली करने वाले विद्याधरों की बाधा और महाराज का आदेश न होने के कारण मैं देवी के पास नहीं गया । (मैं) यहाँ पर चला आया । इसे सुनकर महाराज प्रमाण हैं - अर्थात् अब आप उपाय सोचिए ।' अनन्तर मैंने वसुभूति को देखा। उसने कहा - 'हे मित्र ! अब समय आ गया है । नगरदेवी के उपदेश से वह राजा लज्जित है । अतः देवी को मांगने के लिए किसी दून को सामपूर्वक भेजो।' तब ब्रह्मदत्त ने कहा'अपनी पत्नी को लाने के लिए भी दूत भेजना अपूर्व सामभेद है ।' समरसेन ने कहा- 'उसके लिए भी बहुत बड़ा अपवाद है ।' वायुवेग ने कहा - 'अभीष्ट कार्य सम्पन्न नहीं हुआ ।' बायु मित्र ने कहा - 'महाराज जानें।' १. पलिया – क । २. भागनो य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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