Book Title: Samraicch Kaha Part 1
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 479
________________ ४२१ पंचमी भयो पहाणकायसंगया सुयंधगंधगंधिया। अवायमल्लमंडिया' पइण्णहारचंदिमा ॥४६६॥ लसंतहेमसुत्तया फुरंतआउहप्पहा । चलंतकण्णकुंडला जलंतसीसभूसणा ॥४७०॥ मिबद्धजोव्वणुद्धरा सुकंलकन्नसंगया। मियंकसोहियाणणा नवारविंदसच्छहा ॥४७१॥ समत्तलक्खणंकिया विचित्तकामरूविणो। समुद्ददुंदुहिस्सणा पणामसंठियंजली ॥४७२॥ समागया विज्जाहर त्ति । भणियं च देवयाए-पुत्तय, महापुरिसववसायगुणाणुरंजियं पडिवन्नभिच्चभावं पणमइ चंडसीहप्पमहं भवंतमेव विज्जाहरबलं । तओ मए 'एस भयवई पसाओ'त्ति भणिऊण समाइच्छिया विज्जाहरा। भणियं च देवयाए-पुत्तय, करेमि ते विज्जाहरनरिंदाहिसेयं । मए भणियं-करेउ प्रधान कायसंगता: सुगन्धगन्धगन्धिताः । अम्लानमाल्यमण्डिताः प्रकीर्णहारचन्द्रिकाः ॥४६९।। लसद्धेमसूत्रकाः स्फुरदायुधप्रभाः। चलकर्णकुण्डला ज्वलच्छीर्षभूषणाः ॥४७०॥ निबद्धयौवनोद्धराः सुकान्तकर्णसङ्गताः । मगाङ्कशोभितानना नकारविन्दसच्छया ।।४७१॥ समस्तलक्षणाङ्किता विचित्रकामरूपिणः । समुद्रदुन्दुभिस्वनाः प्रणामसंस्थिताञ्जलयः ।।४७२।। समागत विद्याधरा इति। भणितं च देवतया-पुत्रक ! महापुरुषव्यवसाय गुगानुरञ्जितं प्रतिपन्नभत्यभावं प्रणमति चण्डसिंहप्रमुखं भवन्तमेव विद्याधरवलम् । ततो मया 'एप भगवतीप्रसादः' इति भणित्वा समागता (सत्कृता) विद्याधराः । भणितं च देवतया--पुत्रक ! करोमि ते विद्याधरनरेन्द्राभिषेकम् । मया प्रधान शरीर से युक्त, सुगन्धित पदार्थों की गन्ध से सुगन्धित, बिना मुरझायी हुई माला से मण्डित, हारों की चांदनी को बिखेरते हुए, स्वर्णसूत्र से शोभायमान, आयुधों की प्रभा चमकाते हुए, चंचल कानों के कुण्डलों से युक्त, दीप्त शिरोभूषणों वाले, बँधे हुए यौवन से परिपूर्ण, सुन्दर कानों से युक्त, चन्द्रमा के समान शोभित मुखों वाले, नवीन कमल के समान कान्ति वाले, समस्त लक्षणों से अंकित नाना प्रकार के अभिलषित रूप वाले, समुद्र के समान दुन्दुभि का शब्द करते हुए, प्रणाम करने के लिए अंजलि बाँधे हुए विद्याधर आये। देवी ने कहा-'पुत्र ! महापुरुषों के कार्य रूपी गुणों से अनुरंजित, भृत्यभाव को प्राप्त हुए, चण्डसिंह प्रमुख विद्याधरों की सेना आपको ही प्रणाम करती है।' तब मैंने-'यह भगवती का प्रसाद', ऐसा कहकर विद्याधरों की अगवानी की। देवी ने कहा -'पुत्र ! तेरा 'विद्याधरों के राजा' पद पर अभिषेक करती हूं।' - १. मंडना-क । २, भयवती-ख । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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