Book Title: Samraicch Kaha Part 1
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 476
________________ [समराइज्यका ४१० पुज्जंतु मणोरहा अज्जउत्तस्स । तओ मए सा 'काय रहियया इत्थिय' ति ठविया नाइदूर देसवत्तिणीए मलयगिरिगुहाए । पारद्धा पहाणसेवा । उवणीयाई दसद्धवण्णाइं कुसुमाई । ठाविया देवया । विहिओ वसुभूई दिसावालो' । कओ पउमासणबंधो । निविट्ठाई मुद्दामंडलाई । पारद्धो सय साहस्सिओ मंतजावो । अइक्कंता काइ वेला । जाव हसियं विय नहंगणेण, गज्जियं वि अयाल मेहेहि', गुलुगुलियं विष समुद्देण, कंपियं विय' मेइणीए । तओ मए चितियं । पाविस्सइ भयं पिययमा । सुमरियं चक्क सेणवयणं 'न अन्नो विहीसियं मोत्तूण उवद्दवों" त्ति । पयट्टो मंतजावो । तओ थेववेलाए चेव दिट्ठो मए दंतग्गविभिन्नलंबमाणाहोरणो कण्णवालिलु ढियंकुसो अमरिसावेस कुंडलियकरो कर विक्खित्तसिसिरसीयरासारो आसारपयट्टमयवारिपरिमलो परिमलोबयंत महलमहुयरउलो उत्तरमेहो व्व गुलुगुलेंगे" 'हा अज्जउत्त हा अज्जउत्त'त्ति विलवंति विलासवइमइक्क मिऊण अत्तणो चेव समवयंतो मत्तवारणी । न बुद्धो य चित्तेण, अवगया विहीसिया । थेववेलाए य अइभीसणकसणवण्ण। सोयामणिफुलिंगलोयणा गलोलंबियकरचरणमाला रुहिरोल्लनरचम्मनिवसणा कवालचसएण रुहिरासवं पियंतो भणितम् - पूर्यन्तां मनोरथा आर्यपुत्रस्य । ततो मया सा 'कातरहृदया स्त्री' इति स्थापिता नातिदूरदेशवर्तिन्यां मलयगिरिगुहायाम् । प्रारब्धा प्रधानसेवा । उपनीतानि दशार्धवर्णानि कुसुमानि । स्थापिता देवता । विहितो वसुभूतिर्दिक्पालः । कृतः पद्मासनबन्धः । निविष्टानि मुद्रामण्डलानि । प्रारब्धः शतसाहस्रिको मन्त्रजापः । अतिक्रान्ता काऽपि वेला । यावद् हसितमिव नभोऽङ्गणेन गर्जितमिवाकालमेघैः गुडगुडितमिव समुद्रेण, कम्पितमिव मेदिन्या । ततो मया चिन्तितम् - प्राप्स्यति भयं प्रियतमा । स्मृतं चत्रसेनवचनं 'नान्यो विभीषिकां मुक्त्वा उपद्रवः' इति । प्रवृत्तो मन्त्रजापः । ततः स्तोकवेलायामेव दृष्टो मया दन्ताग्रविभिन्नलम्बमानाधोरणः कर्णपालिलुठिताकुशोऽमर्षावेशकुण्डलितकरः करविक्षिप्त शिशिरसोक रासार आसार प्रवृत्तमदवारिपरिमलः परिमलावपतन्मुखरमधुकरकुल उत्तरमेघ इव गुड्गुडायमानो 'हा आर्यपुत्र ! हा आर्यपुत्र !' इति विलपन्तीं विलासवतमतिक्रम्य आत्मन एव समुपयन् मत्तवारणः । न क्षुब्धश्च चित्तेन, अपगता विभीषिका । स्तोकवेलायां चातिभीषणकृष्णवर्णा सौदामिनिस्फुलिङ्गलोचना गलावलम्बितकरचरणमाला एक दिन रात्रि में ही फल की प्राप्ति हो जायगी । उसने कहा - 'आर्यपुत्र के मनोरथ पूरे हों ।' अनन्तर मैंने वह डरपोक हृदयवाली स्त्री है - ऐसा सोचकर समीपवर्ती मलयपर्वत की गुफा में उसे ठहरा दिया। प्रधान सेवा प्रारम्भ की । पाँच बर्ण के फूल लाया। देवी की स्थापना की । वसुभूति को दिक्पाल ( दिशा का अधिपति या रक्षक) बनाया। पद्माकार आसन बाँधा । मुखमण्डल को एकाग्र किया । एक लाख मन्त्र का जाप प्रारम्भ किया। कुछ समय बीता ( तभी ) आकाशरूपी आँगन मानो हँस पड़ा, वर्षाकालीन मेघों की मानो गर्जना हुई, समुद्र मानो गड़गड़ा गया, पृथ्वी मानो काँप गयी । तब मैंने सोचा - प्रियतमा भयभीत होगी । चक्रसेन का वचन याद आया- 'डर को छोड़कर अन्य कोई उपद्रव नहीं है ।' मन्त्र जाप में लग गया । अनन्तर कुछ ही समय में मैंने एक मतवाला हाथी देखा । वह हाथी दाँतों के अग्रभाग से महावत को चीरकर झुला रहा था उसके कानों में अंकुश लोट रहा था । क्रोधवश उसने सूड़ को लपेट लिया था । सूँड़ से छोड़े हुए ठण्डे जलकणों के समूह की वृष्टि कर रहा था । वर्षा से मद के जल की सुगन्धि फैल रही थी, सुगन्धि पर गिरते हुए भौरों का समूह गुंजार कर रहा था, उत्तरमेघ के समान गुडगुड शब्द कर रहा था, 'हा आर्यपुत्र ! हा आर्यपुत्र !' ऐसा विलाप करती हुई विलासवती को लांघकर अपनी ओर ही आ रहा था । मेरा चित क्षुब्ध नहीं हुआ । १. ठविया - क । २. वसुभूई दिसावालो कओ - ख । ३. पलय क । ४. पिवक । ५. दावेइख । ६. महयाउलो - क। ७. गुलगुलें तो - ख Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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