Book Title: Samraicch Kaha Part 1
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 474
________________ ४१५ दिणेहि घिऊण जलनिहिं लग्गो मलवकले, दिट्टो य समुद्दतडावलोयणगएणे तावसेणं । समासासिओ तेण भपि ओप-वच्छ, तवोवणं गच्छम्ह । गओ तवोवणं । दिट्रो कुलवई, वंदिओ सबहुमाण । काराविओ य तेणाहं पाणवित्ति। पुच्छिओ पच्छा 'वच्छ, कुओ भवं' ति । साहिओ से सयलवुत्तंतो। 'ईइसो एस संसारो' ति अगुसासिओ तेणं । तो भए चितियं । वयस्सविउत्तस्स' तवोवणं चेव रमणीयं । अलमन्नहिं गएण, अलं च सुविणयसमागमविन्भमे सुयणसंगमम्मि इमिणा संसारपरिकिलेसेणं ति । चितिऊण निवेइओ कुलवइणो निययाहिप्पाओ। भणियं च तेण-वच्छ, उचियमिणं; कि तु अइरोदा कम्मपरिणई दुप्परिच्चया सिणेहतंतवो, विसमाइं इंदियाइं, अब्भत्था विसया, दुप्परिच्चओ संसारपरिकि लेसो, विसमं मुणिजणचरियं, अब्भुवगयापालणं च अणत्थसंगयं परलोए लज्जावणिज्जयं इहलोयम्मि। ता नाऊणमचियमागमत्थं तुलिऊणमप्पाणय जज्जए संसारपरि। सचाओन उण अन्नह ति। अन्नं च । नाणओ अवगच्छामि, धरइ ते पियवयस्सो पाणे, भविस्सइ ते तह संगमो। ता इमं ताव एत्थ पत्तकालं, तवस्सिजणं चेव पज्जवासमाणो कंचि कालं चिट्रस त्ति। दिनर्लङ्घित्वा जलनिधि लग्नो मलयकले, दृष्टश्च समुद्रतटावलोकनगतेन तापसेन। समाश्वासितस्तेन भणित-वत्स ! तपोवनं गच्छावः । गतो तपोवनम् । दृष्टः कुलपतिः । वन्दितः सबहूमानम् । कारितश्च तेनाहं प्राणवृत्तिम् । पृष्ट: पश्चाद् 'वत्स ! कुतो भवान्' इति । कथितस्तस्मै सकलवृत्तान्तः 'ईदृश एष संसारः' इति अनुशिष्टस्तेन । ततो मया चिन्तितम् ---वयस्यवियुक्तस्य तपोवनमेव रमणीयम् । अलमन्यत्र गतेन, अलं च स्वप्नसमागमविभ्रमे सुजनसङ्गमेऽनेन संरपरिक्लेशेनेति । चिन्तयित्वा निवेदितः कुपतये निजाभिप्रायः । भणितं च तेन-वत्स ! उचितमिदम् ; किन्तु अतिरौद्रा कर्मपरिणतिः, दुष्परित्यजाः स्नेहतन्तवः, विषमाणीन्द्रियाणि, अभ्यस्ता विषयाः, दुष्परित्यजः संसारपरि क्लेशः, विषम मुनिजनचरितम्; अभ्युपगतापालनं चानर्थसङ्गतं परलोके लज्जनीयमिहलोके । ततो ज्ञात्वोचितागमार्थं तोल यित्वाऽऽत्मानं युज्यते संसारपरिक्लेशत्यागो न पुनरन्यथेति; अन्यच्च ज्ञानतोऽवगच्छामि, धरति ते प्रियवयस्य: प्राणान्, भविष्यति तेन तव सङ्गमः । तत इदं तावदत्र प्राप्तकालम्, तपस्विजनमेव पर्युपासमानः कञ्चित्कालं कर मलय के तट पर आ लगा और समुद्रतट देखने के लिए गये हुए तापस ने (मुझे) देख लिया। उसने आश्वासन दिया और कहा--'वत्स ! हम दोनों तपोवन को चलें ।' तपोवन को गया। कुलपति ने देखा । आदरपूर्वक (उनकी) वन्दना की। उन्होंने मुझे आहार कराया। बाद में पूछा - 'वत्स ! आप कहाँ से आये हैं ? (मैने) उनसे समस्त वृत्तान्त कहा। 'यह संसार ऐसा ही है'-इस प्रकार उन्होंने उपदेश दिया। तब मैंने सोचा'मित्र का वियोग होने पर तपोवन ही रमणीय है। दूसरी जगह जाना व्यर्थ है और स्वप्न के समागम के समान भ्रमरूा संसार के दुःख का कारण इष्ट संयोग व्यर्थ है-ऐसा सोचकर कूलपति से अपना अभिप्राय पा। कुलपति ने कहा-'वत्स ! यह ठीक है, किन्तु कर्म की परिणति अत्यन्त रौद्र है, स्नेह के तन्त कठिनाई से त्यागे जाते हैं, इन्द्रियां विषम हैं, विषयों का अभ्यास है, संसार का क्लेश कठिनाई से छोड़ा ज.ता है. मनिजनों का चरित्र विषम है, स्वीकार किये हए प्रण का पालन करना परलोक में अनर्थयुक्त और इस लोक में लज्जा के योग्य है। अतः योग्य शास्त्रों के अर्थ को जानकर अपने आपको तोलकर संसार के क्लेश का त्याग करना उचित है, दूसरे प्रकार से नहीं। दूसरी बात यह है कि 'ज्ञान से जानता हूँ कि तुम्हारा प्रिय मित्र जीवित है, इसके साथ तुम्हारा मिलाप होगा।' तो अब समय मा गया है, तपस्वीजन की ही कुछ समय १.वयंस-। २. "सरिसत-। ३.नमाइ परिनिट्ठा क-पुस्तकप्रान्तभागे । ४. गोरकम्म-म-ब । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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