Book Title: Samraicch Kaha Part 1
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 475
________________ ४१७ पंचमो भवो ] वयणाओ तुह दंसण जायपच्चासो तवस्तिजणपज्जुवासणपरो ठिओ एत्तियं कालं । तइयदियहे य सुओं मए तावसेण कुलवइणो निवेइज्जमाणो तुज्झत्तो । कावसणे य 'सा चैव मे वयस्सओ संसिऊण कुलवणो अगुन्नविय कुलवई पयट्टो णोरहापूर संपत्तो य कल्लं । दिट्ठो य विज्जाहरो, पुच्छ ते पवृत्त । पुवबंधत्रेण विय निरवसेसा साहिया य तेण । तओ अहं भवंतमन्नेसमाणो इह आगओ । एस मे वृत्तंतो त्ति । तओमए चितियं । भवियव्वं विज्जासंस्थाए, अन्ना कहमयंडम्मि चेव वसुभूइणा सह समागमो | साहिओ से विज्जालंभवत्ततो । ईसि विहसिऊण भणियं च तेण भो वयंस, न अनहा संवच्छरियवयणं । विलासवइविज्जासंपत्तीओ चेवावगच्छामि, भवियव्यं तए विज्जाहरनरिदेण । ता करेहि समीहियं । तओ तम्मि चेव मलयस्तिरे पारद्ध पुव्वसेवा । अइक्कंता मोणव्वयसेवणाए परिमिय फलाहारस्स विसुद्धबंभयारिणो छम्मासः । समत्तो व्वसेवाकप्पो । भणिया विलासवई - देवि, धीरा हो । संपन्नं समीहियं कय जमिह दुबकरं । संप अहोरत्तसज्झं फलं ति । तोए भणियं तिष्ठेति । ततोऽहं मुनिवचनात् तव दर्शनजातप्रत्याशः तपस्विजनपर्युपासनपर स्थित एतावन्तं कालम् । ततोयदिवसे च श्रतो मया तापसेन कुपतये निवेद्यमानस्तव वृत्तान्तः । कथावसाने च ' स एव मे वयस्य:' इति शंसित्वा कुलपतयेऽनुनाप्य कुलपति प्रवृत्तो मनोरथापूरकं सम्प्राप्तश्च कल्ये । दृष्टश्च विद्याधरः । पृष्टश्च ते प्रवृत्तिम । पूर्वबान्धवेनेव निरवशेषा ( प्रवृत्तिः) कथिता च तेन । ततोऽहं भवन्तमन्वेषमाण इहागतः । एष मे वृत्तान्त इति । ततो मया चिन्तितम् - भवितव्यं विद्यासम्पदा, अन्यथा कथमकाण्डे एव वसुभूतिना सह समागमः । कथितस्तस्मै विद्यालाभ वृत्तान्तः । ईषद् विहस्य भणितं च तेन - भो वयस्य ! नान्यथा सांवत्सरिकवचनम् । विलासवती विद्यासम्पत्त्यै नवगच्छामि भवितव्यं त्वया विद्याधरनरेन्द्रेण । ततः कुरु समीहितम् । ततस्तस्मिन्नेव मलयशिखरे प्रारब्धा पूर्वसेवा | अतिक्रान्ता मौनव्रतसेवनया परिमितफलाहारस्य विशुद्धब्रह्मचारिणः षण्मारा । समाप्तः पूर्वसेवाकल्पः । भणिता विलासवती - देवि ! धीरा भव, सम्पन्नं समीहितम् । कृतं यदिह दुष्करम् । साम्प्रतमहोरात्रसाध्यं फलमिति । तया तक सेवा करते हुए ठहरो ।' तब मैं मुनि के वचनों के अनुसार आपके दर्शन की अभिलाषा से तपस्वियों की सेवा करता हुआ अभी तक ठहरा रहा । तीन दिन पहले मैंने तापस कुलपति द्वारा कहे जाते हुए तुम्हारे वृत्तान्त को सुना। कथा की समाप्ति पर 'वही मेरा प्रिय मित्र है' ऐसा कुलपति से कहकर कुलपति की आज्ञा से मनोरथ पूरक गया । वहाँ कल ही पहुँचा था (यहाँ ) विद्याधर दिखाई दिया । ( उससे ) तुम्हारे विषय में पूछा । पूर्वबान्धव के समान उसने आपके विषय में सब कुछ बता दिया। तब मैं आपको खोजता हुआ यहाँ आ गया । यह मेरा वृत्तान्त है । । अनन्तर मैंने विचार किया - यह विद्या प्राप्ति का होना ही है, अन्यथा असमय में ही वसुभति कैसे मिल सकता था ? मैंने वसुभूति से विद्यालाभ का वृत्तान्त कहा। कुछ हँसकर उसने कहा - 'हे मित्र ! ज्योतिषी के वचन अन्यथा नहीं होते हैं। विलासवती और विद्या की प्राप्ति से ही जान गया हूँ कि आप विद्याधर राजा होंगे । अतः इच्छित कार्य करो।' अनन्तर उसने मलयशिखर पर पूर्व सेवा आरम्भ की । मौनव्रत, परमित फलाहार और ब्रह्मचर्य का सेवन करते हुए छह माह बीत गये । पूर्वसेवा का नियम समाप्त हो गया । विलासवती से कहा - ' देवि ! धीर होओ, इष्टकार्य सम्पन्न हो गया। जो कार्य कठिन था वह कर लिया । अब Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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