Book Title: Samraicch Kaha Part 1
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 416
________________ ३१० [समराइज्यका असोयपल्लवविग्भमेह सुपसत्थलेहालंकि एहि माणिवकपज्ज तकणयक डयसणाहेहिं अणुचियकम्माकरेहिं परिमंडलाए महल्लमुत्ताहलमानापरिगयाए तिलेहालंकियाए सिरोहराए, बंधूयकर णिल्लेणं' सहावारुणेण अहरेण, विणिज्जियकुंदकुसुमसोहेहि विणितमऊहजालसोहिल्लेह वसणेह, उत्तगेणं सहावरम णिज्जेणं नासावंसएण, कंतिपडिपूरिएहि विणिज्जियचंदबिंब सोहेहि असोयपल्लवावयंसपडिय पडिमेहि गंडपासहि, विउद्धनव कुवलयदलकति सुकुमालह सुपम्हलेहिं दंसणगोयरावडियजणमणाणवणेह नयह, गहकल्लोल' दरग हियमियंकमंडलनिहेण सुसिणिद्धालयाउलेणं निडालवट्टणं वयणाणुरूवहि जच्चतवणिज्ज' तलवत्तियासणाहेहि अप्पियवयणासवणेहिं सवर्णोह, जिणझाणाणलडज्यंतमयणधूमगारेणं पिव कसिणकुडिलेणं मालइ कुसुमवामसुरहिगंधाय ढियभमंतमुहल भमरो लिपरियएणं के सकलावेणं, तिहुयक सुंदर परमाणुविणिम्मियं पिव अपडरूवं रूवसोहं वहंती, ईसिविहसियारद्धसहियणकहापबंधा विमलमाणिक्क पज्जुत्त' कणयासणोवविट्ठा विलासवइ त्ति । तओ तं दण मोहतिमिरभ्याम्, अशोकपल्लवविभ्रमाभ्यां सुप्रशस्तरेखाऽलंकृताभ्यां माणिक्यपर्युक्त कनककटक सनाथाभ्यामनुचितकर्माकराभ्यां कराभ्याम् परिमण्डलया महन्मुक्ताफलमालापरिगतया त्रिरेखालंकृतया शिरोधरया, बन्धूकसदृशेण स्वभावारुणेनाधरेण, विनिर्जितकुन्दकुसुमशोभैविनिर्गच्छन्यू मखजालशोम मानर्दशनैः, उत्तुङ्गेन स्वभावरमणीयेन नासावंशेन, कान्तिप्रतिपूरिताभ्यां विनिर्जितचन्द्रबिम्बशोभाभ्यामशोकपल्लवावतंसकपतितप्रतिबिम्बाभ्यां गण्डपाश्र्वाभ्याम् बिबुद्धनवकुवलयदलकान्तिसुकुमालाभ्यां सुपक्ष्मलाभ्यां दर्शनगोचरापतितजनमनआनन्दनाभ्यां नयनाभ्यां ग्रहकल्लोले षद्गृहितमृगाङ्गनिभेन सुस्निग्धालका कुलेन ललाटपट्टेन, वदनानुरूपाभ्यां जात्यतपनीयतलवर्तिका सनाथाभ्यामं प्रियवचनाश्रवणाभ्यां श्रवणाभ्याम्, जिन ध्यानानलदह्यमानमदनधूमोद्गारेणेव कृष्णकुटिलेन मालतीकुसुमदामसुरभिगन्धाकर्षितभ्रमरभ्रमन्मुख रावलिपरिगतेन केशकलापेन, त्रिभुवनैकसुन्दरपरमाणुविनिभितामिवाप्रतिरूपां रूपशोभां वहन्ती, ईषद्विहसितारब्धसखीजनकथाप्रबन्धा विमलमाणिक्यप्रयुक्तपत्ते का भ्रम उत्पन्न करने वाले, श्रेष्ठ रेखाओं से अलंकृत, मणिजटित सोने के कड़ों से युक्त, अनुचित कार्य को न करने वाले उसके हाथ थे । चारों ओर बहुत बड़ी मोतियों की माला से घिरी हुई तीन रेखाओं से सुशोभित गर्दन थी । बन्धूक ( दुपहरिया ) पुष्प के समान स्वभाव से ही लाल उसके अधर थे, कुन्द के फूलों की शोभा को जीतने वाले, निकलते हुए किरण समूह के समान शोभायमान उसके दाँत थे । ऊँची और स्वभाव से रमणीय उसकी नाक थी । कान्ति से भरे हुए चन्द्रमा के बिम्ब की शोभा को जीतने वाले अशोक पल्लव के बने हुए कर्णभूषण का जिसमें प्रतिबिम्ब पड़ रहा था, ऐसे उसके गाल थे । खिले हुए नीलकमल के समान सुकुमार बरौनियों वाले दर्शनपथ में पड़े हुए मनुष्यों के मन को आनन्द देने वाले उसके दोनों नेत्र थे । ग्रहरूपी तरंगों को ग्रहण किये हुए चन्द्रमा के समान चिकनी भौहों से युक्त ललाटपट्ट (मस्तक) था । मुँह के अनुरूप तपाये हुए सोने के वर्ण वाली बाली से युक्त प्रियवचनों को सुनने वाले उसके दोनों कान थे। जिनेन्द्र भगवान् की ध्यानरूप अग्नि में जलाये गये कामदेव के धुएँ के उद्गार के समान ही मानो काले, कुटिल, मालती की माला के समान सुगन्धित घूम-घूमकर संचार करती हुई भौंरों की पंक्ति से युक्त केशों का समूह था । इस तरह तीन भुवनों के अद्वितीय परमाणुओं से निर्मित अप्रतिम रूप की शोभा को वह विलासवती धारण कर रही थी । कुछ-कुछ मुस्कराती हुई सखियों ने कथाओं की योजना आरम्भ कर दी थी। (तथा वह ) स्वच्छ मणियों से जटित सोने के आसन पर बैठी थी । १. करणिल्ल (दे०) सदृशम्, २. पडिमा एवहि गंडासेहि-ख, ३. कल्लोलो (दे०) शत्रुः राहुरित्यर्थः, ४. तसवत्तियं (दे० ) कर्णाभरर्ण, ५. विणिम्मिधियं - ख, ६. पज्जत्तख । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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