Book Title: Samraicch Kaha Part 1
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 449
________________ पंचमी भवो] तोए। तावसकन्नओचिएणं च विहिणा अइक्कंतो कोइ कालो । अन्नया गओ य णे भयवं कलवई धम्मभाउयदसणत्थं सिद्धपव्वयं ति। जाव इओ अईयकइवयदिण मि गंतूण एसा कुसुमसामिहेयस्स अइक्कंताए उचियवेलाए मग्गओ पुलोएमाणी अणुफुसियकवोलतललग्गवाहजललवा सेयसलिलधोयगत्ता' खीरोयमहणतक्खणुठ्ठिया वियसिरी अरइपरिगया आगया आसमपयं । तओ मए पुच्छिया-रायपुत्ति, किमेयं' ति । तोए भणियं-अज्ज मए बन्धवाणं सुमरियं । मए भणियं-- परिच्चय विसायं, जाव कुलवई आगच्छइ तओ सो बन्धवाणं नेइस्सइ ति । पडिस्सुयं तोए । जाव तओ चेव दिवसाओ आरब्म मंदायरा देवयापूयाए अणुज्जुत्ता अतिहिबहुमाणे न करेइ कुसुमोच्चयं, न पणमइ हुयासणं, आलिहइ विज्जाहरमिहुणाई, पुलोएइ सारभजुयलाइं, करेइ मणोहवस्त वि मणोरहे जोव्वणवियारे, नियभत्तारगयइत्थिाणुरायपहाणपोराणियकहासुं च उवहइ परिओसं । तओ मए चितियं-अहो से वयविसेसेण उगगयं जोधगं, जोवणेणं मओ, मएण मयणो, मयणेणं विलासा, विलासेहि सव्वहा न सुलह निव्वियारं जोव्वर्णति । अवि यतया। तापसकायोचितेन च विधिनाऽतिक्रान्तः कोऽपि कालः । अन्यदा गतश्च अस्माकं भगवान कुलपतिधर्मभ्रातृदर्शनार्थ सिद्धपर्वतमिति । यावदितोऽतीतकतिपयदिने गत्वैषा कुसुमसामिधेयाय (कसूम-काष्टसमूहाय) अतिक्रान्तायामुचितवेलायां मार्गतः पश्यन्ती अनुप्रोञ्छितकपोलतललग्नवाष्पजनलवा स्वेदमलिलधौतगात्रा क्षीरोदमथनतत्क्षणादुत्थितेव श्रीरिवारतिपरिगताऽऽगताऽऽश्रमपदम्। ततो मया पृष्टा-'राजपुत्रि! किमेतद्' इति । तया भणितम्-अद्य मया बान्धवानां स्मतम् । मया भणितम्-परित्यज विषादम्, यावत्कुलपति रागच्छति, ततः स बान्धवान्, नेष्यतोति । पतिश्रुतं तया। यावत् तत एव दिवपादारभ्य मन्दादरा देवतापू नायामनुद्युक्तऽतिथिबहुमाने न करोति कमुमोच्चयम्, न प्रणमति हुताशनम्, आलिखति विद्याधरमिथनानि, पश्यति सारसयुगलानि, करोति मनोभवस्यापि मनोरथान् यौवनविकारान्, निजभर्तृगतस्त्र्यथनुरागप्रधानपौराणिककथासू च उद्वहति परितोषम् । ततो मया चिन्तितम्-अहो अस्या वयोविशेषेणोपागतं यौवनम, योवनेन मदः, मदेन मदनः; मदनेन विलासा:, विलासैः सर्वथा न सुलभं निर्विकारं यौवनमिति । अपि चआज्ञा दें' कहकर उसने स्वीकार किया। तापस कन्या के योग्य विधि से (उसने) कुछ समय व्यतीत किया। एक बार जब हमलोग कुलपति के भाई के दर्शन के लिए सिद्ध पर्वत पर गये हुए थे तभी अब से कुछ दिन पहिले यह फन और समिधा लेने के लिए गयी । उचित समय बीत जाने पर मार्ग को देखती हुई, गाल पर लगे हुए आंसुओं की बंदों को पोंछकर, पसीने के जल से शरीर धोकर क्षीरसागर के मन्थन से उसी समय उठी हुई लक्ष्मी के समान यह (अत्यन्त स्मरण करती हुई) अरति में डूबी हुई (अरति परिगता) आश्रम भूमि में आयी। तब मैंने पूछा- राजपुत्री ! यह क्या ?' उसने कहा-'आज मुझे वान्धवों की याद आ रही है।' मैंने कहा-'विषाद छोड़ । जब कुलपति आयेंगे तब वे बन्धुओं के पास ले जायेंगे।' उसने स्वीकार किया । उसी दिन से वह देवियों की पूजा में कम अनुराग करती है, अतिथि के सत्कार में नियुक्त नहीं होती है, फूलों को नहीं तोड़ती है, अग्नि को प्रणाम नहीं करती है। विद्याधरों के जोड़े बनाती है, सारस के जोड़ों को देखती है, कामदेव के भी मनोरथरूप यौवन के विकारों को करती है, अपने पति सम्बन्धी, स्त्रियों का अनुराग जिसमें प्रधान है, ऐसी पौराणिक कथाओं में सन्तोष धारण करती है।, अनन्तर मैंने सोचा-ओह ! इसकी अवस्थाविशेष से यौवन आया, यौवन से मद माया, मद से काम आया, काम से विलास बाये, विलास से यौवन सर्वथा विकाररहित होना सुलभ नहीं है। कहा भी है 1. "गंग-ख, 2. नहस्सा-क, ३. "जुयर्म-ख, ४. उपपई Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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