Book Title: Samraicch Kaha Part 1
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 451
________________ पंचमो भवो ] ३१३ मासमपयं ति । मए पुण ससज्झसहिययाए न दिन्नं पडिवयणं वामयाए' सहावेण उक्कडयाए मयणस्स न तिष्णं मए जंपिउं । गया थेवं भूमिभायं । काऊण धीरथं पुलोएमाणीए न उवलद्धो य पिट्ठओ । ता न याणामि, कि उप्पेक्खेमि तं दीहाउयं, आउ हिययाओ मे विणिग्गओ, आउ पलोहेइ मं अज्जउत्तवेसे कोइ अमाणुसो, आउ सच्चयं चेव अज्जउत्तो त्ति । सत्रहा जं होउ तं होउ । न सक्कुणोमि पुणो पज्जलियमयणाणला अज्जउत्तविरहदुक्खं विसहिउं । ता एयाए अइमुत्तयलयाए उम्बंधिऊण वावामि अत्ताणयं । अप्पमत्ता होज्जह सरीरे अज्जउत्तस्स साहेज्जह य एवं वृत्तंतं जणणिनिविसेसाए अयारणवच्छलाए भयवईए । अहं पुण लज्जापरा होणयाए न सक्कुणोमि आचिविखउं ति । भणिऊण मारूढा वम्मीयसीहरं', निबद्धो लयापासओ । तओ मए चितियं - नत्थि दुक्करं मयणस्स । कओ तीए गुरुदेवाणं पणामो दिन्नो पासओ सिरोहराए, पवत्ता मेल्लिउं अप्पाणयं । एत्यंतरंम्भि परित्तायह त्ति भगती गया अहं तीए पासं । अवणीओ से पासओ, भणिवा यसा-रायउत्ति, जुत्त इमं लोयंतरपट्टाए वि अगापुच्छ्गं जगणितुल्लाए य मे पओयण कहणं ति । तओ हद्धी' सव्वं चैव द्वीप:, कुत्र वा युष्माकमाश्रमपदमिति । मया पुनः ससाध्वसहृदयया न दत्तं प्रतिवचनम्, वामतया स्वभावेन उत्कटतया मदनस्य न शक्तं मया जल्पितुम् । गता स्तोकं भूमिभागम् । कृत्वा धीरतां पश्यन्त्या च नोपलब्धश्च पृष्ठतः । ततो न जानामि - किमुपेक्षे तं दीर्घायुष्कम्, अथवा हृदयान्मे विनिर्गतः, अथवा प्रलोभयति मामार्यपुत्रवेशेण कोऽप्यमानुषः, अथवा सत्यमेवार्यपुत्र इति । सर्वथा यद् भवतु तद् भवतु । न शक्नोमि पुनः प्रज्वलित मदनानला पुत्रविरहदुःखं विसोढुम् । तत एतयाऽतिमुक्तलतया उद्बध्य व्यापादयाम्यात्मानम् । अप्रमत्ता भवेः शरीरे आर्यपुत्रस्य, कथयतं चैतं वृत्तान्तं जननीनिर्विशेषाया अकारणवत्सलाया भगवत्याः । अहं पुनर्लज्जापराधीनतया न शक्तोम्याख्यातुमिति । भणित्वारूढा वल्मीकशिखरम्, निबद्धोलतापाशः । ततो मया चिन्तितम्नास्ति दुष्करं मदनस्य । कृतस्तया गुरुदेवताभ्यः प्रणामः, दत्तः पाशः शिरोधरायाम्, प्रवृत्ता क्षेप्तुमात्मानम् । अत्रान्तरे परित्रायध्वमिति भगन्तो गताऽहं तस्याः पार्श्वम् | अपनीतस्तस्याः पाशः । भणिता च सा - राजपुत्रि ! युक्तं न्विदं लोकान्तरप्रवृत्तयाऽपि अनाप्रच्छनं जननीतुल्यायाश्च से युक्त हृदय वाली होकर उत्तर नहीं दिया । स्वभाव की विपरीतता और काम की उत्कटता के कारण मैं बोल नहीं सकी। थोड़ी दूर गयी । धैर्य धारण कर मैंने देखा, किन्तु ( वह ) प्राप्त नहीं हुआ । अत: नहीं जानती हूँ, उस दीर्घायु की क्यों उपेक्षा की अथवा वह मेरे हृदय से निकल गया अथवा कोई देवता मुझे आर्यपुत्र के वेष में प्रलोभन दे रहा है, अथवा सही रूप में आर्यपुत्र ही हैं । सर्वथा जो हो सो हो, कामरूपी अग्नि से जलायी हुई आर्यपुत्र के विरह रूपी दुःख को सहने में अब समर्थ नहीं हूँ । अतः इस अतिमुक्तक लता से बाँधकर आत्म-मरण करती हूँ ! आर्यपुत्र का शरीर अप्रमादी हो, इस वृत्तान्त को माता के समान अकारण प्रेम करने वाली भगवती से कह देना । मैं लज्जा से पराधीन होने के कारण नहीं कह सकती हूँ। ऐसा कहकर वह बाँवी के ऊपर चढ़ गयी, लताओं का पाश बाँधा । तब मैंने सोचा - कामदेव के लिए (कुछ भी कार्य ) कठिन नहीं है। उसने बड़ों और देवताओं को प्रणाम किया और गर्दन में पाशा डाल लिया। अपने आपको गिराने के लिए वह तैयार हो गयी । इसी बीच 'बचाओ' ऐसा कहती हुई मैं उसके पास पहुँची। उसका पाश हटाया। उससे कहा - 'राजपुत्री, दूसरे लोक को जाते हु भी माता के तुल्य मुझसे न पूछना और प्रयोजन न कहना क्या उचित है ?' तब 'हाय ! १. वायास । २. पुणो विख, ३. सिहरनिख ४ जुतमिमं जुतमिगं ख, ५. अड्डी क Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516