Book Title: Samraicch Kaha Part 1
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 457
________________ पंचमो भवो] संपाडेमि जहासमीहियं । हियए ववत्थाविय भणियं च तेण 'ठायसु तुम' ति । ठिओ अहं जाणवत्तणिज्जहए, पेल्लिओ य तेण निवडिओ संसारविसाले सायरे। समासाइयं च पुवभिन्नबोहित्थसंतियं फलहयं। लंघिओ जीवियसेसयाए पंचरत्तेणं जलनिहि। पत्तो मलयकूलं, उतिण्णो जलनिहोओ चितियं मए-अह किं पुण सत्थवाहपुत्तस्स मम वावायणपओयणं । नूणं विलासवइलोहो । ता मूढो खु सो वाणियओ अणभिन्नो विलासवइचित्तस्स । न खलु सा मम विओए पाणे धारेइ, विन्नायं पडयसंभमेण । विणा य तीए कि कज्जं मे निष्फलेण पाणसंधारणेणं। ता वावाए मि अत्ताणयं ति। चितिऊण निज्झाइयाओ दिसाओ, दिट्ठोय नाइदूरम्मि चेव थलसंठिओ नीवपायवो। तओ निव्वामि पिययमाविरहसंतावियं एत्थ उक्कलबंणेण अप्पाणयं ति चितिऊण पयट्टो नीवपायवसमीवं । दिट्टच नाइदूरम्मि चेव तीरतरुसंडमंडियं वियसियकमलसंघायसंछाइयमझभायं हसंतं विय कुमयगहि पलोयंतं विय कसणुप्पलविलासेहिं रुयंतं विय चक्कवायकूइएहिं गायंतं विय मुइयमहुय ररुएहि स्त्रीरत्नमिति सम्पादयामि यथासमीहितम् । हृदये व्यवस्थाप्य भणितं च तेन-'तिष्ठ त्वम' इति । स्थितोऽहं यानपात्रनियंहके, प्रेरितश्च तेन निपतितः संसारविशाले सागरे । समासादितं च पूर्वभिन्नबोहित्थसत्कं फलकम् । लङ्गितो जीवितशेषतया पञ्चरात्रेण जलनिधिः । प्राप्तो मलयालम. उत्तीर्णो जलनिधितः । चिन्तितं मया-अथ किं पुनः सार्थवाहपुत्रस्य मम व्यापादनप्रयोजनम् ? ननं विलासवतोलोभः । ततो मूढः खलु स वाणिजकोऽनभिज्ञो विलासवतीचित्तस्य । न खलु सा मम वियोगे प्राणान धारयति । विज्ञातं पटसम्भ्रमेण । विना च तया कि कार्य मे निष्फलेन प्राणसन्धारणेन । ततो व्यापादयाम्यात्मानमिति । चिन्तयित्वा निध्याता (अवलोकिता) दिशः । दटश्च नातिने एव स्थलसंस्थितो नीपपादपः । ततो निर्वापयामि प्रियतमावि रहसन्तापितमत्रोत्कलम्बनेनात्मानमिति चिन्तयित्वा प्रवृत्तो नोपपादपसमोपम् । दृष्टं च नातिदूरे एव तीरतरुषण्डमण्डितं विकसितकमलसङ्घातसञ्छादितमध्यभागं हसदिव कुमुदगणैः, विलोकयदिव कृष्णोत्पलविलासरुददिव चक्रवाककूजितैर्गायदिव मुदिमधुकररुतै त्यदिव कम्पमानवोचिहस्तैः कमल रजः इस व्यक्ति को समुद्र में फेंककर काम की मञ्जूषास्वरूप इस स्त्रीरत्न को अंगीकार कर इष्टकार्य को पूरा करूंगा।' हृदय में ऐसा निश्चय कर उसने कहा-'तुम बैठो। मैं जहाज पर बैठ गया। उसके द्वारा धक्का दिये जाने पर मैं संसार के विशाल सागर में गिर गया। मुझे पहले टूटे हुए जहाज का टुकड़ा मिल गया। आयु शेष रहने के कारण पाँच रात्रि में समुद्र पार कर लिया। मलय के तट पर आये (और) समुद्र से उतरे। मैंने सोच वणिकपत्र का मेरे मारने का क्या प्रयोजन है? निश्चित रूप से विलासवती का लोभ ही प्रयोजन हो सकता है वह वणिक मर्ख है, उसे विलासवती के चित्त की जानकारी नहीं है। मेरा वियोग हो जाने पर वह प्राण धारण नहीं कर सकेगी। वस्त्र के द्वारा अपने को छिपाकर (मैंने यह) जान लिया । उसके बिना मेरा प्राण धारण करना निष्फल है, अतः (मैं) अपने आपको मारता हूँ-ऐसा सोचकर दिशाओं की ओर देखा। समीप में ही पृथ्वी पर स्थित एक कदम का वृक्ष दिखाई दिया। प्रियतमा के विरह से दुःखी मैं अपने आपका इस वृक्ष पर फांसी लगाकर अन्त कर लूगा-ऐसा सोचकर कदम के वृक्ष के पास गया । समीप में ही बहुत बड़ा तालाब दिखाई दिया। उसका किनारा वृक्षों के समूह से मण्डित था । विकसित कमलों के समूह से उसका मध्य भाग आच्छादित था। मानो कुमुदों के समूह से वह हंस रहा था। नीलकमल के विलासों से मानो देख रहा था । चकवों की कूजन से मानो रो रहा था। प्रसन्न मन वाले भौंरों के गुनगुनाने से मानो गा रहा था। कांपती हुई लहरों रूपी हाथों से वह मानो नृत्य कर १. समीहियं ति । साहारा हियर भणियं तेण --के । २. फनयं-क, ३. वावाएमि पिययम विरहसंतावियं अप्पाणसं-ख । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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