Book Title: Samraicch Kaha Part 1
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 469
________________ पंचमो भवो ] ४११ इमं पडणं । भत्तार सिणेहओ कओ तीए पणिही 'जम्मंतरम्मि विसो चेव' मे भत्ता भवेज्ज' ति । forest अपा, मया य सा । परोप्परविरोहओ य तक्केमि न संपन्ना तेसि मणोरहा । ता किं एइणा तिविरहविण अणुट्टाणेणं । कहं कया वा पिययमाए विओओ संजाओ त्ति ता आचिक्ख एयं । तओ मए 'सुंदरं भणइ' त्ति चितिऊण साहिओ अयगरवृत्तंतो । तइयदियहो य इमस्स वत्तस्स । विज्जाहरेण भणियं - केदूरे वत्तं ति । मए भणियं-- अत्थि इओ दसह जोयणेहि । विज्जाहरेण भणियं - जइ एवं ता अलं विसाएण; न विवन्ना ते पिययमा । मए भणियं कहं विय । तेण भणियं--सुण, अत्थि अणेय विज्जाहरर्नारदम उलिमणिप्पभाविसर विच्छुरियपायपीढो चक्कसेणो नाम विज्जाहरवई । पारद्धं च तेण अपडियचक्काए महाविज्जाए साहणं । दुवालसमासिया से कया पुव्वसेवा । तओ अडयालीसजोयणं' काऊण खेत्तसुद्धि सव्वसत्ताणं दाऊणमभयदाणं 'सत्तरत्तं जाव रवा इह महापयत्तेगं हिंस' त्ति निरूविऊण निवसरीरभूए विज्जाहरे पहाणसिद्धिनिमित्तं एगागी चैव गेण्हिऊण फलिहमणिवलयं पविट्टो सिद्धिनिलयाभिहाणं मलयगिरिगुहं ति । पारद्धो तेण प्रणिधिः 'जन्मान्तरेऽपि स एव मे भर्ता भवेद्' इति । विमुक्त आत्मा, मृता च सा । परस्परविरोधतश्च तर्कयामि न सम्पन्ना तयोर्मनोरथाः । ततः किमेतेन युक्तिविरहितविषयेणानुष्ठानेन । कथ कदा वा प्रियतमाया वियोगः सञ्जात इति तावर् आचक्ष्व एतद् । ततो 'सुन्दरं भणति' इति चिन्तयित्वा कथितोऽजगरवृत्तान्तः । तृतीयदिवसश्चास्य वृत्तस्य । विद्याधरेण भणितम् - कियद्दूरे वृत्तमिति । या भणितम् - अस्ततो दशभिर्योजनैः । विद्याधरेण भणितम् - यद्येवं ततोऽलं विषादेन, न विपन्ना प्रियतमा । भया भणितम् - कथमिव । तेन भणितम् - शृणु । अस्ति अनेक विद्याधरनरेन्द्र मौलिमणिप्रभाविस र विच्छुरितपादपीठश्च क्रसेनो नाम विद्याधरपतिः । प्रारब्धं च तेनाप्रतिहतचक्राया महाविद्यायाः साधनम् । द्वादशमासिकी तस्याः कृता पूर्वसेवा । ततोऽष्टचत्वारिशद्योजनां कृत्वा क्षेत्रशुद्धि सर्वसत्त्वेभ्यों दत्त्वाऽभयदानं 'सप्तरात्रं यावद् रक्षितव्येह महाप्रयत्नेन हिंसा' इति निरूप्य निजशरीरभूतान् विद्याधरान् प्रधान सिद्धिनिमित्तं एकाक्येव गृहीत्वा स्फटिकमणिवलयं प्रविष्टः सिद्धिनिलयाभिधानां मलगिरिगुहामिति । प्रारब्धस्तेन सप्तलक्षिको मन्त्रजापः । पूर्णानि च तस्य - ज्ञात हुआ । उसे शोक हुआ। वह इस गिरने के स्थान पर आयी। पति के स्नेह से इसने समाधि लगायी । 'दूसरे जन्म में भी वही मेरा पति हो' इस प्रकार उसने ( भी ) अपने आपको छोड़ दिया और मर गयी । परस्पर विरोधी होने के कारण मैं सोचता हूँ उनके मनोरथ पूरे नहीं हुए । अतः युक्ति से रहित इस प्रकार के अनुष्ठान से क्या लाभ है ? कैसे और कब प्रियतमा का वियोग हुआ ? इसे कहो । तब 'सुन्दर (ठीक) कहता हैऐसा सोचकर अजगर का वृत्तान्त कह सुनाया। इस घटना को हुए आज तीसरा दिन है ।' विद्याधर ने कहा -- 'कितनी दूर घटना हुई ?' मैंने कहा - 'यहाँ से दस योजन दूरी पर ।' विद्याधर ने कहा- 'यदि ऐसा है तो विषाद मत करो, तुम्हारी प्रियतमा मरी नहीं है'। मैंने कहा - 'कैसे ?' उसने कहा - 'सुनो, अनेक विद्याधर राजाओं के मुकुटमणि की प्रभा के विस्तार से जिसका पादपीठ ( पैर रखने का पीढ़ा ) आच्छादित है - ऐसा चक्रसेन नामक विद्याधरों का स्वामी है । उसने अप्रतिहतचक्र नामक महाविद्या का साधन किया । बारह माह पहले उसकी सेवा की । अनन्तर अड़तालीस योजन की क्षेत्र - शुद्धि कर समस्त प्राणियों को अभयदान दिया । यहाँ पर महाप्रयत्न से सात रात्रि तक हिंसा से रक्षा करना चाहिए - ऐसा विचारकर प्रधान १. जेवक । २...लीसंख । ३. नियय ... ख । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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