Book Title: Samraicch Kaha Part 1
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 471
________________ पंचमी भयो तओ' संभंतो' उढिओ विज्जाहरो। भणियं च तेण - भो भो पेक्ख पेक्ख संसिद्धमहाविज्जस्स सामिणो चक्कसेणस्स रिद्धि । पेच्छमाणाण य वोलियं चडगरेणं, पभाया रयणी, उग्गओ अंसुमाली । तो यमं घेत्तण गओ चक्कसेणसमोवं निव्वुइकरं नाम मलयसिहरं । पणमिओ तेण विज्जाहरो सरो। विइण्णाई आसणाइं । उवविट्ठा अम्हे । साहिओ तेण मदीयवृत्तंतो चक्कसेणस्स । भणियं च तेणभो महापुरिस, मा संतप्प । अज्जेव ते पिययमं घडिस्सामि त्ति । एत्थंतरम्मि समागया दुवे विज्जाहरा। पणमिओ तेहिं चक्कसेणो । भणियं च एगेण। महाराय, देवसमाएसेणेव सयलजीवोवघायपरिरक्खणनिमित्तं भमंतेहि काणाणंतराइं एगम्मि उद्देसे दिट्ठा महाकायअयगरभएण मोत्तण उत्तरीयं 'हा अजउत्त, हा अज्जउत्त'त्ति भणमाणी [उट्ठिया पल्लवसयणीयाओ] पलायमाणा इत्थिया। निवडिऊण वावत्तिभीएहि गहिया य अम्हेंहिं, उवणीया मलयसिहरं, विमुषका य पल्लवसयणिज्जे। मच्छिया विय ठिया कंचि कालं । तओ भयवेविरंगी 'हा अज्जउत्त, हा अज्जउत्त' त्ति भणमाणी उट्रिया पल्लवसयणीयाओ । भणिया य अम्हेहि-सुंदरि, अलं ते भएण; साहेहि ताव, कहिं ते अज्जविद्याधरविमानम् । ततः सम्भ्रान्त उत्थितो विद्याधरः, भणितं च तेन-भो भोः ! प्रेक्षस्व प्रेक्षस्व संसिद्धमहाविद्यस्य स्वामिनश्चक्रसेनस्य ऋद्धिम् । प्रेक्षमाणयोश्चातिक्रान्तं चटकरेण (समहेन)। प्रभाता रजनी, उद्गतोऽशुमाली । ततश्च मां गृहीत्वा गतश्चक्रसेनसमीपं निर्वतिकरं नाम मलय. शिखरम् । प्रणतस्तेन विद्याधरेश्वरः । वितीर्ण आसने । उपविष्टावावाम । कथितस्तेन मदीयवत्तान्तश्चक्रसेनाय । भणितं च तेन-भो महापुरुष ! मा सन्तप्यस्व, अद्ये व ते प्रियतमां घट यिष्यामीति । अत्रान्तरे समागतौ द्वौ विद्याधरौ । प्रणतस्ताभ्यां चक्रसेनः । णितं चैकेन--महाराज ! देवसमादेशेनैव सकलजीवोपघातपरिरक्षणनिमित्तं भ्रमद्धयां काननान्तराणि एकस्मिन्नुद्देश दृष्टा महाकायाजगरभयेन मुक्त्वोत्तरीयं 'हा आर्यपुत्र ! हा अर्यपुत्र !' इति भणन्ती (उत्थिता पल्लवशयनीयात्) पलायमाना स्त्री। निपत्य व्यापत्तिभीताभ्यां गहोता चावाभ्याम, उपनीता मलयशिखरम् । विमुक्ता च पल्लवशयनीये। मूच्छितेव स्थिता कञ्चित्कालम् । ततो भयवेपमानाङ्गी 'हा आर्यपुत्र ! हा आर्यपुत्र' ! इति भणन्ती उत्थिता पल्लवशयनीयात् । भणिता चावाभ्याम् के विमान के आकार का अनुसरण करता हुआ विद्याधर का विमान आया । तब हड़बड़ाकर विद्याधर उठ गया और उसने कहा-'हे ! हे ! महाविद्या की सिद्धि किये हुए स्वामी चक्रसेन की ऋद्धि देखो।' हम दोनों के देखतेदेखते समूह चला गया। प्रभात हुआ, सूर्य निकला । तब मुझे लेकर (विद्याधर) चक्रसेन के पास निवृति कर नामक मलयपर्वत के शिखर पर गया। उसने विद्याधरों के स्वामी चक्रसेन को प्रणाम किया। दो आसन रखी गयीं। हम दोनों बैठ गये। उस विद्याधर ने मेरा वृत्तान्त चक्रसेन से कहा । उसने कहा-'हे महापुरुष ! दुःखी मत होओ। आज ही तुम्हारी प्रिततमा को मिला दगा ।' इसी बीच दो विद्याधर आये । उन दोनों ने चक्रसेन को प्रणाम किया। एक ने कहा---'महाराज ! महाराज की आज्ञा से ही समस्त जीवों की हिंसा से रक्षा के लिए जंगल में भ्रमण करते हुए एक स्थान पर महाकाय अजगर के भय से उत्तरीय को छोड़कर 'हा आर्यपुत्र ! हा आर्यपुत्र ।' कहकर (पत्तों की शय्या से उठ) भागती हई स्त्री दिखाई दी। उतरकर मरण के भय से हम दोनों में पकड़ लिया । मलयपर्वत के शिखर पर ले आये और पत्तों की शय्या पर छोड़ दिया। कुछ समय तक मूच्छितसी रही । अनन्तर भय से जिसके अंग काँप रहे थे ऐसी वह 'हा आर्यपुत्र ! हा आर्यपुत्र !' कहती हुई पत्र-शय्या १. नास्ति ख-पुस्तके । २. ससंभंतो-क । ३. मतीय-ख । ४. अयं पाठ क-पुस्तकप्रान्तभागे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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