Book Title: Samraicch Kaha Part 1
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 462
________________ [समराइच्धकहां 4 पुच्च मिन्नवणफलहएणं च उत्तिण्णो म्हि। भइक्कंता काइ वेला। तीए भणियं - अज्जउत्त, तिसाभिभूय म्हि । मए भणियं-देवि, इओ नाइदूरम्मि चेष महतं सरवरं । ता एहि गच्छम्ह । पयट्टा विलासवई । समागया थेवं भूमिभागं । तओ एल्ययाए नियंबस्स खीणयाएं' समुद्दतरणेणं सोमालयाए देहस्स वीसत्थाए मम सन्निहाणेणं न सपके चंकमिउं' । तओ मए भणियं-देवि, चिट्ठाहि ताव तुमं नग्गोहपायवसमीवे, जाव संपाडेमि देचौए नलिणिपत्तणमुदयं ति । तोए भणियं - न मे तुह वयणदसणतण्हाओ बाहए सलिलतण्हा । मए मणियं-देवि, धीरा होहि; आगओ चेव अहयं ति। कयं च से पल्लवसयणिज्ज । समप्पिओ नयणमोहणो पडो । भणिया य एसा-देवि, बहुपच्चवायं अरण्णं, अओ एयपच्छाइयसरीराए चिट्ठियन्वं, जाव अहमागच्छामि त्ति । अबहुमयं पि हियएण अपडिकूलयाए पडिस्सुयं तीए । अहं गओ सरवरं। पहियमयगं नारंगफलाणि य । पयट्टो पडिवहेणं, समागओ तमुद्देसं । भणिया य एसा देवि, मुंच वयनमोहणं पश्यं, गेण्हाहि उदगं ति । जाव न वाहरइ ति, तओ मए भणियं-देवि, अलं परिहासेणं, सिऊण) सूत्वानिपतितस्तद्देशसमासादितपूर्व भिन्नवहनफलकेन चोत्तीर्णोऽस्मि । - अतिक्रान्ता काऽपि वेला । तया भणितम्- आर्यपुत्र ! तृषाऽभिभूताऽस्मि । मया भणितम्इतो नातिदूरे एव महत् सरोवरम् । तत एहि गच्छावः । प्रवृत्ता विलासवती । समागता स्तोकं ममिभागम। ततो गुरुतया नितम्बस्य क्षीणतया समुद्रतरणन सुकूमारतया देहस्य विश्वस्तया मम अन्निधानेन न शक्नोति चंक्रमितम। ततो नया भणितम-देवि ! तिष्ठ तावत्त्वं न्यग्रोधपादपसमीपे दावत सम्पादयामि देव्य नलिनीपत्रेणोदकामति । तया भणितम-~न मे तव वदनदर्शनतष्णाया बाधते सलिलतष्णा। मया भणितम्-देवि ! धीरा भव, आगट एवाहमिति । कृतं च तस्या, पल्लवशयनीयम् समर्पितो नयनमोहनो पट: । भणिता चैषा- देवि ! बहु प्रत्यवायमरण्यम्, अत एतत्प्रच्छादितशरीरया स्थातव्यम्, यावदहमागच्छामीति । अबहुम्तमपि हृदयेन अप्रतिकूलतया प्रतिश्रुतं तया । अहं गतः सरोवरम् । गृहीतमुदकं नारङ्गफलानि च । प्रवृत्तः प्रतिपथेन, समागतस्तसुद्देशम् । भणिता चैषादेवि ! मुञ्च नयनमोहनं पटम, गहाणोदकमिति । यावत व्याहरतीति,ततो मया भणितम्-देवि! अलं गिर पड़ने पर उस स्थान पर प्राप्त पहले टूटे हुए जहाज के टुव हे से समुद्र पार किया है।' र कुछ समय बीता। उसने कहा-'आर्य पुत्र! प्यास से अभिभूत हूँ।' मैंने कहा---'समीप में हो एक बड़ा जालाब है । तो आओ चलें ।' विलासवती चलने गी। थोड़ी दूर गयी । अनन्तर नितम्बों के भारी होने, समुद्र पार करने से दुबली होने, शरीर की सुकुमारता त पा मेरी समोपता के कारण चल न सकी। तब मैंने कहा'देवि ! तब तक तुम वटवृक्ष के पास बैठो जब तक मैं कमल-त्र में जल लेकर आता हूँ।' वह बोली-'तुम्हारे मुख-दर्शन की प्यास से (अधिक) जल की प्यास पीड़ा नहीं पहुंचाती।' मैंने कहा- 'देवि ! धैर्य धारण करो, मैं बस अभी आया।' उसके लिए पत्रों की शैया तैयार कर दी और नयनमोहन वस्त्र दे दिया। और उसस कहा-'देवि ! यह वन आपदाओं से भरा है इसलिए मेरे आने तक इसे शरीर पर ओढ़े रहना । न मानने पर भी हृदय की अप्रतिकूलता के कारण उसने स्वीकार कर लिया। मैं तालाब पर गया । जल और नारंगियों को लिया। लोट कर उस स्थान पर आया। इससे कहा--'देवि ! नयनमोहन वस्त्र को छोड़ो, जल ग्रहण करो।' जब वह नहीं बोली तो मैंने कहा- 'देवि ! परिहास मत करो, नयन मोहन वस्त्र को छोड़ो।' तब ९. सिमाय-क, 2. भणिय च णाए 'न सक्कुणामि चंकमिउ'-क, ३. चिट्ठ-क। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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