Book Title: Samraicch Kaha Part 1
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 464
________________ [समराइसकहा देवीसमागमो त्ति । गओ अयगरसमीवं । सो यमं दळूण कयावराहो विय कुपुरिसो संकुडिओ अयगरो। चितियं मए-मयस्स वि पिययमासमागमो दुल्लहो त्ति । तओ कहं अकुविओ ममं गहेऊणं एसो गसिस्सइ" ति आहो उत्तिमंगभाए अयगरो। भयकायरेणं च तेण निग्गिलिओ नयणमोहणो पडो, आबद्धा मंडली, निसामिओ फणामोओ। तओ पिययमागत्तसंगबहुमाणेण गहिओ पडो, विइण्णो वच्छत्थले । वितियं च मए--एयं चेव नयणमोहणं हियए दाऊण उक्कलंबणेण वावाएमि अत्ताणयं ति । गओ नग्गोहसमीवं, जत्थ पिययमा पसुत्ता आसि । निबद्धो पासओ, साहागएणं च निमिया सिरोहरा, विमुक्को अप्पा, निरुद्धो कंठदेसो। तओ भमियं विय काणणेहि, निवडियं विय नहंगजेणं, विणिग्गयाई, नयणाई अवसीयं सरीरये । अओ परमणाचिक्खणीयं अणणुभूयपुवं सम्मोहमणु थेववेलाए य सुमिणए विय दिट्ठो मए कमंडलपाणिएण ममं चेव गतसिंचणवावडो रिसी। समागया चेयणा ।चितियं च-हंत, धरणिगओ अहं, न विवन्नो चेव मंदपुण्णो त्ति । तओ परामुटु मे अंगमिसिणा। भणिओ य सो मए-भयवं कि तए वबसियं ति ! तेण भणियं-सुण । दिट्ठो तुम मृतस्यापि बहुमत एव मे देवोसमागम इति । गतोऽजग समोपम् । स च मां दृष्ट्वा कृतापराध इव कुपुरुषः संकुचितोऽजगरः । चिन्तितं मया- मतस्यापि प्रियतमासमागमो दुर्लभ इति । ततः 'कथमकुपितो मां गृहीत्वा प्रतिष्यति' इति आहत उत्तमाङ्गभागेऽजगरः । भयकातरेण च तेन निर्मिलितो नयनमोहनः पट:, आबद्धा मण्डली, निशामितः फणाभोगः । ततः प्रियतमागात्रसङ्गबहुमानेन गहीत: पटः, वितो? वक्षःस्थले । चिन्तितं च मया-एतमेव नयनमोहनं हृदये दत्त्वा उत्कलम्बनेन व्यापादयाम्यात्मानमिति । गतो न्यग्रोधसमोपम्, यत्र प्रियतमा प्रसुप्ताऽऽसीत् । निबद्धः पाशकः, शाखागतेन च न्यस्ता शिरोधरा, विमुक्त आत्मा, निरुद्धः कण्ठदेशः । ततः भ्रान्तमिव काननैः, निपतितमिव नभोऽङ्गणेन, विनिर्गत नयने, अवशीभूतं शरीरम् । अतः परमनाख्येयमननुभूतपूर्व सम्मोहमनुप्राप्तोऽस्मि । स्तोकवेलायां च स्वप्ने इव दृष्टो मया कमण्डलुपानीयेन ममैव गात्रसेचनव्याप्त ऋषिः । समागता चेतना, चिन्तितं च हन्त, धरणीगतोऽहम्, न विपन्न एव मन्दपुण्य इति । ततः परामृष्टं मेऽङ्गमषिणा । भणितश्च स मया-भगवन् ! कि त्वया व्यवसित. कर भी अभीष्ट है । अजगर के पास गया । वह मुझे देखकर अपराध किये हुए बुरे मनुष्य के समान संकुचित हो गया। मैंने सोचा-परकर भी प्रियतमा का समागम दुर्लभ है । बिना क्रुद्ध हुए कैसे मुझे ग्रहण करेगा ? ऐसा सोचकर अजगर के सिर पर चोट मारी। भय से दुखी होकर उसने नयनमोहन वस्त्र उगल दिया, दण्डली बाँध ली और फणों के विस्तार का संकोच कर लिया। अनन्तर प्रियतमा के शरीर की आसक्ति अभिमत होने से वस्त्र ले लिया और वक्षःस्थल पर डाल लिया। मैंने सोला-इसी नामोहन वस्त्र को हृदय से लगाकर अपने आपको फांसी लगाकर मर जाऊँ । वटवृक्ष के पास गया, जहां पर कि प्रियतमा सोयी हुई थी। रस्सियों को बाँधा, शाखा पर चढ़कर गर्दन रखी, अपने आपको छोड़ा, गला रंग गया । तब जंगल में घूमता हुआ-सा आकाशरूपी आँगन में गिरा हुआ-सा हो गया । मेरी दोनों आँखें निकल आ, शरीर वश में नहीं रहा । अतः जिसका पहले अनुभव नहीं हुमा था और जो अकथनीय थी ऐसी अवस्था का अनुभव करते हुए मूच्छित हो गया। थोड़े ही समय में स्वप्न में कमण्डलु के जल से मेरे शरीर का सिंचन रने में लगा हुआ-सा ऋषि मुझे दिखाई दिया। होश आया और (मैंने सोचा-'खेद है, मैं धरती पर हूँ, मन्द ण्य के कारण नहीं मरा। तब मेरे अंग को ऋषि ने छुआ। मैंने उनसे कहा-'भगवन् ! आपने यह क्या किया? उन्होंने कहा -'सुनो ! फूल और समिधा लाने के लिए आये १. तभो कुविएण चिय कह णामाकुविनो गसिस्सइ ति-८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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