Book Title: Samraicch Kaha Part 1
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 465
________________ पंचमो भयो] अत्तवावायणुज्जओ मए दूरदेसवत्तिणा कुसुमसामिहेयागाणं । तओ 'हा को पुण एसो सप्पुरिसनिदियं मग्गं पवज्जइ, किंवा से ववसायकारणं पच्छिऊण निवः रेमि एयं' ति चितिऊण पयट्रो तुरियतुरियं, जाव मुक्को तए अप्पा । तओ 'मा साहसं पा साहसं' ति भणमाणो तुरिययरं धाविओ पत्तो य नग्गोहसमीवं । एत्थंतरस्मि तुट्टो ते पासओ। निवडिओ धरणिवटु । तओ य सित्तो मए कमंडलपाणिएण, लद्धचेयणं मुणिऊण परामुट्ठच ते अंगं। एयं: ववसियं ति । ता आचिक्ख धम्मसील' कि पुण इमस्स ववसायस्स कारणं । तओ सविलिएणं जंपियं मए-भयवं, अलं मे ववसायकारणेणं । तेण भणियं-वच्छ, अलं ते लज्जाए। सव्वस्स जणणिभो तवस्सिजणो होइ । अमणियवत्तंतो य किमहं भणामि त्ति। ता आचिक्खउ भवं । तओ मए 'अकारणवच्छलो माणणीओ गिहिणो जइजणो त्ति चितिऊण साहिओ सेयवियानिग्गमणाइओ उक्कलबधावसाणो निययवृत्तन्तो। भणियं च तेणवच्छ, ईइसो एस संसारो । एत्थ खल सरयजलहरसमं जीवियं, कुसुमियतरुसमाओ रिद्धीओ, सुमिणओवभोयसरिसा विसयभोगा विओयावसाणाई पियजण समागमाई। ता परिच्चय इमं ववसायं ति । मिति । तेन भणितम्-शृण । दृष्टस्त्वमात्म व्यापादनो तो मया दूरदेशवतिना कुसुम-सामिधेया(काष्ठा)गतेन । ततो हा कः पुनरेष सत्पुरुषनिन्दितं मार्ग प्रपद्यते, किंवा तस्य व्यवसायकारणं पृष्ट्वा निवारयाम्येतम्' इति चिन्तयित्वा प्रवृत्तस्त्वरितत्वरितम, यावन्मुक्तस्त्वयाऽऽत्म। । ततो 'मा साहसं मा साहसं' इति भणन त्वरिततरं धावितः प्राप्तश्च न्यबोधसमीपम् । अत्रान्तरे त्रुटितस्ते पाशः । निपतितो धरणोपृष्ठे । ततश्च सिक्तो मया कमण्डलुपानीयेन । लब्धचेतनं ज्ञात्वा परामष्टं च तेऽङ्गम । एतन्मे व्यवसितमिति । तत आचक्ष्व धर्मशील ! किं पुनरस्य व्यवसायस्य कारणम् । ततः सव्यलीकेन जल्पितं मया-भगवन् ! अलं मे व्यवसाय कारणेन । तेन भणितम - वत्स ! अलं ते लज्जया, सर्वस्य जननीभूतः तपस्विजनो भवति, अज्ञातवृत्तान्तश्च किमहं भणामि इति । तत आचष्टां भवान् । ततो मया 'अकारणवत्सलो माननीयो गृहिणो यतिजन:' इति चिन्तयित्वा कथितः श्वेतविकानिर्गमनादिक उत्कलम्बनावसानो निजवत्तान्तः । भणितं व तेन वत्स ईदश एष संसारः। अत्र खलु शरज्जलधरसमं जीवितम्, कुसुमिततरुसमा ऋद्धयः, स्वप्नोपभोगसदृशा विषयभोगाः, वियोगावसानाः प्रियजनसमागमाः । ततः परित्यजेमं व्यवसायमिति । न परित्यक्तप्राणोऽपि जीवोsहुए मुझे आप दूर पर आत्मघात करने के लिए उद्यत दिखाई दिये। तब 'हाय, सत्पुरुषों के द्वारा निन्दित मार्ग को यह कौन प्राप्त हो रहा है ? इसके इस निश्चय का कारण क्या है ? ऐसा पूछकर रोकता हूँ'-ऐसा सोचकर जल्दी-जल्दी चला। तब तक तुमने अपने आपको को छोड़ दिया। तब 'बिना सोचे-समझे काम मत करो, बिना सोचे-समझे काम मत करो'-ऐसा कहते हुए शीघ्र ही दौड़कर वट वृक्ष के समीप आया । इसी बीच तुम्हारी रस्सी टूट गयी, (तुम) धरती पर गिर गये । तब मैंने कमण्डलु का जल सींचा। होश में आया जानकर तुम्हारे अंग को छुआ। यह मैंने किया। तो धर्मशील ! कहो- इस निश्चय का क्या कारण है ?' तब लज्जित होकर मैंने कहा'भगवन् ! मेरे निश्चय का कारण मत पूछो।' उन ऋषि ने कहा – 'वत्स ! लज्जा मत करो। तपस्वी जन सभी के लिए माता के समान होते हैं, वृत्तान्त न जानने पर मैं क्या कहूँ ? अत: आप बताइए।' तब मैंने 'माननीय यतिजन गृहस्थों पर अकारण प्रेम करने वाले होते हैं' - ऐसा कहकर श्वेतविका से निकलने से लेकर फांसी पर लटकने तक का वृत्तान्त बताया। उन ऋषि ने कहा-'वत्स ! यह संसार ऐसा ही है । इस संसार में जीवन शरत्कालीन मेष के समान है । ऋद्धियाँ पुष्पित वृक्ष के समान हैं, विषयभोग स्वप्न के उपभोग के समान हैं, प्रियजन के समागम का अन्त वियोग के रूप में होता है। अतः इस निश्चय को छोड़ो। प्राण देने पर भी जीव १.धम्मसीसया-क। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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