Book Title: Samraicch Kaha Part 1
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 461
________________ पंचमो भवो ] ४० ३ 1 पुच्छिया य 'देवि, किमेयं' ति । तीए भणियं - अज्जउत्त, सुण । मम मंदभागधेयाए अपुणे हिं निवडिए तुमम्मि अज्जउत्तसोएणं च अत्ताणयं समुहपवाहणुज्जए सत्यवाहे' तन्निवारणत्थं च सह मए आउलीहूए परियणे पहायाए रयणीए 'अवट्ट अवट्ट' त्ति वाहते कण्णहारे रज्जुपरिवत्तणुज्जएस निज्जामसुं अयंडम्म चेव गिरिसिहरनिवडियं पिव विवन्नं जाणवत्तं । विहडिओ जणो । अज्जउत्तअणुभावेण मम पुण्णोयएणं च समासाइयं मए फलहयं । लंघिओ जलनिही, दिट्ठो य तुमं ति । तओ मए चितियं - अहो मायासीलया अहो अकज्जसंकष्पपरिणामो सत्यवाहस्स । अहवा किमेत्य अच्छरियं । खलु अणुवायओ कज्जसिद्धी, अणुवायओ पावायरणं सुहाणं, जेण तत्थ पढमं चैव अत्तणो संकिलेसो पुणो य परपीडा । ता कहमेवंविहन्भासओ सुहपरिणामो । तहावि अविश्य सुहसाहणोवाया पयट्टति एत्य पाणिणो विप्पलद्धा मीण व्व गलसंपत्तितुल्लाए विवागदारुणाए सुहसंपत्तीए । एत्थंतरम्मि भणियं विलासवईए-अज्जउत्त, तुमं पुण कहं निवडिओ, कहं वा उत्तिष्णो ति । तओ 'न जुतं परदोसपडणं' ति चितिऊण जंपियं मए - देवि, पमायओ फेल्लुसिऊण' निवडिओ तद्द ससमासाइयमया, पृष्टा च 'देवि ! किमेतद्' इति । तया भणितम् - आर्यपुत्र ! शृणु । मम मन्दभागधेयाया अपुण्यनिपतिते वय आर्यपुत्रशोकेन चात्मानं समुद्रप्रवाहणोद्यते सार्थवाहे च तन्निवारणार्थं सह मया आकुलीभूते परिजने प्रभातायां रजन्यां 'अपवर्तय अपवर्तय' इति व्याहरति कर्णधारे रज्जुपरिवर्तनोद्यतेषु निर्यामकेषु अकाण्डे एव गिरिशिखरनिपतितमिव विपन्नं यानपात्रम् । विघटितो जनः । आर्यपुत्रानुभावेन मम पुण्योदयेन च समासादितं मया फलकम् । लङ्घितो जलनिधिः, दृष्टश्च त्वमिति । ततो मया चिन्तितम् - अहो मायाशोलता, अहो अकार्यसङ्कल्पपरिणामः सार्थवाहस्य । अथवा किमत्राश्चर्यमिति । न खल्वनुपायतः कार्यसिद्धिः, अनुपायतः पापाचरणं सुखानाम्, येन तत्र प्रथममेव आत्मनः संक्लेशः पुनश्च परपीडा । ततः कथमेवंविधाभ्यासतः शुभपरिणामः तथाप्यविदितसुखसाधनोपायाः प्रवर्तन्तेऽत्र प्राणिनो विप्रलब्धा मीना इव गलसम्प्राप्तितुल्यायां विपाकदारुणायां सुखसम्प्राप्तौ । अत्रान्तरे भणितं विलासवत्या - आर्यपुत्र ! त्वं पुनः कथं निपतितः कथं वोत्तीर्ण इति । ततो 'न युक्तं परदोषप्रकटनम्' इति चिन्तयित्वा जल्पितं मया-देवि ! प्रमादतः ( फेल्लु 1 हुआ ?' उसने कहा - 'आर्यपुत्र ! सुनो- मुझ मन्द भाग्यवाली के पापों से आपके गिर जाने पर आर्यपुत्र के शोक सं अपने को समुद्र में गिराने और वणिक् द्वारा रोकने को उद्यत होने पर परिजन आकुल हो गये। रात्रि के प्रभात रूप में परिणत होने पर 'पलटी-पलटो' इस प्रकार कर्णधार के कहने पर जब नाव चलाने वाले रस्सी परिवर्तन के लिए उद्यत हुए तब असमय में ही मानो पर्वत का शिखर गिरा हो, इस प्रकार जहाज नष्ट हो गया । मनुष्य अलगथलग पड़ गये। आर्यपुत्र के प्रभाव और पुण्योदय से मुझे एक लकड़ी का टुकड़ा मिल गया । मैंने समुद्र पार किया और तुम दिखाई दिये ।' तब मैंने सोचा - ओह, सार्थवाह की मायाशीलता और अकार्य करने के संकल्प का परिणाम आयुक्त है अथवा इसमें आश्चर्य क्या है ? बिना उपाय के कार्य की सिद्धि नहीं होती है। उपाय के न रहने पर सुखी व्यक्ति पापाचरण करते हैं जिससे प्रथम तो उन्हें स्वयं संक्लेश होता है, पुनः दूसरों को पीड़ा होती है । अत: इस प्रकार के अभ्यास से शुभ परिणाम कैसे हो सकता है ? तथापि सुख-साधनों के उपायों को न जानने वाले प्राणी धोखा दी गयी मछली के समान, गले की पकड़ के तुल्य जिसका फल भयंकर होता है ऐसे, सुख की प्राप्ति में प्रवृत्त होते हैं । इसी बीच विलासवती ने कहा- 'और तुम कैसे गिरे ? और कैसे समुद्र पार किया ?" अनन्तर दूसरे दोषों का प्रकट करना उचित नहीं है - ऐसा सोचकर मैंने कहा--' देवि ! प्रभाद से गिर पड़ा था । - १. " मंमि सत्यवाहपुत्ते य 'भम पत्ती होहि' ति भणन्ते तओ प्रणिच्छन्ती अहं" इति पाठः क — पुस्तकप्रान्तभागे एवं लिखित:, स च प्रक्षिप्त माभाति पूर्वापर संदर्भविरोधात् । 2. फेल्लिसिऊणक, फेलसिकणख । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516