Book Title: Samraicch Kaha Part 1
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 460
________________ . ४०२ समराइन्धकहा वठूर्ण पियजायाघडियं कलहंसयं विहिवसेण । मझं पि सावय तओ मणम्मि चिता समुप्पन्ना ॥ ४६३ ॥ एवं जीवंताणं कालेण कयाइ होइ संपत्ती। जीवाण मयाणं पुण कत्तो दोहम्मि संसारे ॥ ४६४ ॥ पाणेसु धरतेसु य नियमा उच्छाहसत्तिममयंतो।। पावेइ फलं पुरिसो नियववसाधाणुरूवं तु ॥ ४६५ ॥ अन्नं च -विलासवईए वि साहिओ कुलबइणा विवाओ, जहा पाविऊग भत्तारं भुंजिऊण भोए परलोयसाहणेण सफलं चेव माणुसत्तणं करिस्सइ ति । ता न वावाएइ सा अत्ताणयं । विचित्ताणि य विहिणो विलसियाई । ता इमं ताव पत्तकालं, जं तीए गवेसणं ति । चितिऊण नारंगोवओरण कया पाणवित्ती। पयट्टो जलनिहितडेणं, गओ अद्धजोयणमेत्तं भूमिभागं । दिदै च वीईपणोल्लिज्जमागं समद्दतीरम्मि फलहयं । पयट्टो तस्स समीवं । पत्तं च तीरं। दिट्टा य तत्थलग्गा कंठगय पाणा विलासवई । हरिसिओ चित्तेणं, पच्चभिन्नाओ य अहं तीए । रोविउं पयत्ता, समासासिया मए दृष्ट्वा च प्रियजायाघटितं कलहंसकं विधिवशेन । ममापि श्रावक ! ततो मनसि चिन्ता समुत्पन्ना ॥ ४६३ ॥ एवं जीवतां कालेन कदाचिद् भवति सम्प्राप्तिः। जीवानां मृतानां पुनः कुतः दीर्घे संसारे ।। ४६४ ।। प्राणेष धरत्सु (विद्यमानेष) च नियमादुत्साहशक्तिममुञ्चन् । प्राप्नोति फलं पुरुषो निजव्यवसायानुरूपं तु ॥ ४६५ ॥ अन्यच्च-विलासवत्या अपि कथित: कुलपतिना विपाकः, यथा प्राप्य भर्तारं भुक्त्वा भोगान परलोकसाधनेन 'सफलमेव मानुषत्वं करि यतीति । ततो न व्यापादयति साऽऽत्मानम् । विचित्राणि च विधेविलसितानि । तत इदं तावतप्तकालं यत्तस्या गवेषणमिति । चिन्तयित्वा नारङ्गोपयोगेन कृता प्राणवृत्तिः । प्रवृत्तो जलनिधितटेन, गतोऽर्धयोजनमात्रं भूमिभागम् । दृष्टं च वोचिप्रणुद्यमानं समुद्रतीरे फलकम् । प्रवृत्तस्तस्य समीपम् । प्राप्तं च तोरम । दृष्टा च तत्रलग्ना कण्ठगताप्राणा विलासवती । हृष्टश्चित्तेन, प्रत्यभिज्ञातश्चाहं तया । रोदितं प्रवृत्ता, समाश्वासिता भाग्यवश प्रिया से मिले हुए कलहंस को देखकर, हे श्रावक! मेरे मन में भी चिन्ता उत्पन्न हई। इस प्रकार जीवित रहने पर कदाचित् मिलन हो जाय । मृत जीवों का दीर्घ संसार में पुनः मिलन कैसे हो सकता है ? प्राणों के विद्यमान रहने तथा नियम से उत्साह शक्ति को न छोड़ने पर पुरुष अपने निश्चय के अनुरूप फल को प्राप्त कर लेता है ।। ४६३-४६५ ।। और फिर कुलपति ने भी तो विलासवती से फल कहा है कि पति को प्राप्त कर, भोगों को भोगकर परलोक के साधन से मनुष्यभव को सफल करोगी । अतः वह आत्मघात नहीं करेगी। भाग्य की लीलाएँ विचित्र होती है, तो यह समय आ गया है जब कि मैं उसे ढूढू', ऐसा विचार कर नारंगी के उपयोग से आहार किया। समुद्र के किनारे गया । आधा योजन दूर गया और तरंगों से प्रेरित लकड़ी के टुकड़े को समुद्र के किनारे देखा । (मैं) उसके समीप गया। किनारे पर आया और उसमें लगी हुई कण्ठगत प्राण वाली विलासवती को देखा। मन में प्रसन्न हुआ और उसने मुझे पहिचान लिया । वह रोने लगी। मैंने उसे समझाया । देवी से पूछा-'यह कैसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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