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नच्चमाणं त्रिय हल्लंतवी इहत्थेहि कमलरयपिंजरजलं महासरं ।
दिट्ठो य तत्थ एक्को कलहंसो कहवि पिययमारहिओ । foresयारहिओ पुण इमेहि लिगेहि विन्नाओ ।।४५१ ।। - अवलोएइ दसदिसि एगानी तरलतारयं खिन्नो । कणं च कूजिऊणं खणमेत्त निच्चलो ठाइ || ४५२ ॥ पिययमसरिसं हंस दट्ठूणं हरिसिओ समल्लियइ । मुणिऊण य अन्नं तं नियत्तए नवर सविसायं ॥ ४५३ ॥ मरणावेसियचित्तो पज्जलियं हुयवहं व कमलवणं । पइसइ' मुणालखंड विसं व सो पेच्छए पुरओ' ||४५४|| fages taणापि कमलर उक्बुडियपंजरच्छायं । विरहाणलपज्जलि व मणहरं पेहुणकलावं ॥ ४५५ ।। मिउपवण हल्लायितलिणतरं गुच्छलंत सिसिरेहिं । सिच्चतो मुछिइ विवसो जलसीयरेहिं पि ॥ ४५६ ॥
पिञ्जरजलं महासरः ।
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दृष्टश्च तत्रैकः कलहंसः कथमपि प्रियतमाविरहितः । प्रियदयितारहितः पुनरेभिलिङ्ग विज्ञातः ॥४५१ ।। अवलोकयति दश दिश एकाको तरलतारकं खिन्नः । करुणं च कूजित्वा क्षणमात्रं निश्चलस्तिष्ठति ॥४५२ ॥ प्रियतमासदृशी हंसीं दृष्ट्वा हृषितः समालीयते । ज्ञात्वा चान्यां तां निवर्तते नवरं सविषादम् ||४५३|| मरणाविष्टचित्तः प्रज्वलितं हुतवहमिव कमलवनम् । प्रविशति मृणालखण्डं विषमिव स प्रेक्षते पुरतः ॥। ४५४ ॥ विधुनाति पवना कम्पितकमल रजोमिश्रित पिञ्जरच्छायम् । विरहानलप्रज्वलितमित्र मनोहरं पिच्छकलापम् । ।४५५ ।। मृदुपवनप्रचालितचपलतरङ्गोच्छल च्छिशिरैः ।
सिच्यमानो मूर्च्छति विवशो जल सिकरैरपि ॥ ४५६ ।।
रहा था और उसका जल कमल के पराग से पीला-पीला हो रहा था ।
उस सरोवर में एक राजहंस को प्रियतमा से रहित देखा । प्रियतमा से रहित से जाना जाता था । वह अकेला चंचल नेत्रों में खिन्न मन वाला होकर दशों दिशाओं में कूजन कर क्षणभर के लिए निश्चल होकर ठहर जाता था । प्रियतमा के समान हंसी को देखकर हर्षित समीप आ जाता था और दूसरी जानकर विषाद से युक्त हो उससे अलग हो जाता था । मरणाविष्ट चित्त-सा होकर जलती हुई अग्नि के समान कमलवन में प्रविष्ट होता था, और सामने के कमल के डण्डलों के समूह को वह विष के समान देख रहा था। वायु से कँपाये गये कमल की पराग से मिश्रित पीली कान्ति से मनोहर पंखों के समूह जो विरह की अग्नि में जल रहे हों - इस प्रकार कांप रहा था । कोमल वायु के द्वारा चलायी हुई चंचल तरंगों के उछलने से शीतल जलकणों से सींचा जाता हुआ भी विवश होकर मूर्च्छित हो जाता था ।।४५१-४५६ ।।
१. कोमल, २. नवरंख, ३. निययकः ।
[ समराइच्चकहा
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था, यह उन चिह्नों देख रहा था । करुण
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