Book Title: Samraicch Kaha Part 1
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 453
________________ पंचम भवो ] पच्छा य मुणिकुमारयाहूओ अहय ति । उवणीयं में आसणं । द्विा य मुणालियावलयहारमुग्वहंती नलिगिदलसत्थरगया विलासवई । सा य मं ठूण विलिया' मोत्तूण सत्यरं अम्भंतरं गया। उवविट्ठो य अहयं, संपाइओ अग्यो तीए वयंसियाहि तावसकुमारियाहि । तावसीसमाएसेणं च घेतूण चलणसोयं संठवेंती उत्तरिज्जं पुलोएमाणो वलियकंधरं दिसामुहाइं समागया विलासवई । सोचिया चलणा। एत्थंरम्मि ठिओ गगणमझयारी दिणयरो, जाओ य सनिओयतप्परो मुगिजणो, उवणीयाई फणसमाइयाई फलाइं, कया पाणवित्ती। आगया य तावसी । भणियं च तीए-रायपुत्त, तएजारिसाणं' आसमपयमागयाणं कंदफलमेत्ताहाराण पाणवित्ती। वक्कलनिवसणो य तावसजणो ता कि करेउ अतिहिसकारं । तं एसा विलासवई मम जीवियाओ वि वल्लहयरा पुत्वसंपाडिया चेव विहिणा पुणो मे संपाडिय त्ति । भणिऊण वक्कलंतपिहियाणणा रोविउ पयत्ता। तओ मए भणियं-भयवहा विइयसंसारसहावा चेव तुमं; ता किमयं ति। उवणीयं च से तावसकुमारियाए सविणयं वयणतो. यणसलिलं । सोचियं तीए वयणं, वक्कलंतेणमवमज्जिऊण उठ्यिा आसणाओ। स्यमेव होममंडवे. तापसी, पश्चाच्च मुनिकुमारकाहूतोऽहमिति । उपनीतं च मे आसनम्। दृष्टा च मृणालिकावलयन हारमुद्वहन्ती नलिनीदलस्रस्तरगता विलासवती । सा च मां दृष्ट्वा व्यलीका मुक्त्वा स्रस्तरमभ्यन्तरं गता। उपविष्टश्चाहम्, सम्पादितोऽस्तिस्या वयस्याभिः तापसकमारिकाभिः । तापसीसमादेशेन च गहीत्वा चरणशौचं संस्थापयन्ती उत्तरीयं पश्यन्ती वलितकन्धरं दिङ्मुखानि समागता विलासवती। शौचितौ चरणौ। अत्रान्तरे स्थितो गगनमध्यचारी दिनकर, जातश्च स्वनियोगतत्परो मुनिजनः । उपनीतानि पनसादिकानि फलानि, कृता प्राणवृत्तिः । आगता च तापसी । भणितं... च तया-राजपत्र ! त्वत्सदशानामाश्रमपदमागतानां कन्दफलमात्राहाराणां प्राणवत्तिः, वल्कलनिवसनश्च तापसजनः, ततः किं करोत्वतिथिसत्कारम् । तदेषा विलासवती मम जीविताशि वल्लभतरा पूर्वसम्पादितैव विधिना पुनर्मया सम्पादितेति । णित्वा वल्कलान्तपिहितानना गेदितु प्रवृत्ता । ततो मया भणितम्---भगवति ! विदितसंसारस्वभावा एव त्वम्, तत: वि मेतदिति । उपनीतं च तस्य तापसकुमारिकया सविनयं वदनशोचन(शुचिकरण)सलिलम् । शोचितं (शुचिकृतं) तया वदनम्, वल्लकलान्तेनावमार्य उत्थिताऽऽसनात् स्वयमेव होममण्डपे होमकुण्डे एव मङ्गलमिति कलयित्वा प्रज्वालितो हतवहः । निजकाभरणभूषिता समर्पिता मे विलासवती । गृहीता च सा मया मुनिकुमार के द्वारा बुलाया गया मैं प्रविष्ट हुआ। मेरे लिए आसन लाया गया । कमल नाल के घेरे के हार को धारण किये हुए कमलिनी के पत्तों के बिस्तर पर बैठी हुई विलासवती दिखाई दी । वह मुझे देखकर लज्जित होकर विस्तर छोड़कर चुपचाप भीतर चली गयी । मैं बैठ गया, उसकी (राजपुत्री की) सखी तापस कुमारियों ने अर्ध्य सम्पादन किया। तापसी की आज्ञा से पैर धोने का जल लेकर दुपट्ट' को धारण कर, गर्दन मोड़कर दिशाओं की ओर देखती हुई विलासवती आयी। दोनों चरण धोये । इसी बीच सूर्य मध्याकाश में विचरण करने लगा, मुनिजन अपने अपने कार्य में लग गये । कटहल आदि फल लाये गये, (मैंने) आहार किया। तापसी आयी और उसने कहा'राजपुत्र ! आप जैसे आश्रम में आये हुए व्यक्ति कन्दफल मात्र आहार कर रहे हैं, हमलोग वल्कलधारी तापसी हैं, अत: क्या अतिथिसत्कार करें? ये विलसवती मुझे प्राणों से भी अधिक प्यारी है। मैंने इसे पहले प्राप्त की हई धे से पुनः प्राप्त करा दी है-ऐसा कहकर वल्कल से मुंह ढककर रोने लगी। अनन्तर मैंने कहा---'भगवती। संसार के स्वभाव को जानती हो, अत: यह क्या ?' तापसी के लिए तापसकुमारी विनयपूर्वक मह धोने का जल लायी। उसने मुंह धोया, वस्त्र के छोर से पोंछकर आसन से उठ गयी। स्वयं ही उसने होममण्डप में होम १.विलियविलिया-क, २. तएरिसाणं-क, ३.-हारपाण--ख,४. पबत्ता-ख, ५. उवणीय ति-, ६.-मुहं मज्जिऊण । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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