Book Title: Samraicch Kaha Part 1
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 447
________________ पंचमी भवो] मायण्णियं वयणममेण । तओ निग्गच्छिऊण तायज्जाओ कोवेणमागओ तामलित्ति । पडिपिछओ सबहमाणं ईसाणचंदेण । तओ वसंतसमए]' कोलानिमित्तं अणंगणंदणं उज्जाणं गच्छमाणो दिट्ठो इमीए, समुप्पन्नो य से तम्मि अणराओ। पडियन्नो तीए एस भत्ता मणोरहेहि न उण परिणीय त्ति। अइक्कतेसु कइवयदिणेसु जगराओ वियाणियभिभीए, जहा सो वावाइओ ति । तओ तन्नेहमोहियमणा 'अहं पि ख तम्मि चेव पिउवणे पंचत्तमवगयं पि तं पेच्छिऊण पाणे परिच्चयामि' ति चितिऊण अड्ढरत्तसमए पसुत्ते परियणे एगागिणी चेव निग्गया रायगेहाओ। ओइणा रायमगं, गहिया तक्करेहि, गेण्हिऊण आहरणयं विक्कीया बब्बरक गामिणो बयलसत्थवाहस्स हत्थे। पयट्टाविया तेण निययकलं । विवन्नं च तं जाणवत्तं, समासाइयं च इमीए इलहयं । तओ तिरत्तेण पत्ता इमं कलं' अवत्थं च । विवाओ उण, पाविऊण भत्तारं भुंजिऊण भोए परलोयसाहणेणं सफलं चेव माणुसत्तणं करिस्सइ त्ति । मए भणियं-- भयवं, किन्न वामाइओ से हिययवल्लहो। भयवया भणियं-आमं ति। वचनमनेन । ततो निर्गत्यता तार्यात् कोपेनागतो तामलिप्तीम् । प्रतीष्ट: सबहुमानमोशानचन्द्रेण । ततो वसन्तसमये] क्रीडानिमित्तमनङ्ग नन्दनमुद्यानं गच्छन् दृष्टोऽनया, समुत्पन्नश्च तस्यास्तस्मिन्न नुरागः । प्रतिपन्नश्च तया एष भर्ता मनोरथैर्न पुनः परिणीतेति । अतिक्रान्तेषु कतिपयदिनेषु जनरवाद् विज्ञातमनया, यथा स व्यापादित इति । ततः तत्स्नेहमोहितमना: 'अहमपि खलु तस्मिन्नेव पितृवने पञ्चत्वमुपगतमपि तं (भर्तारं) प्रेक्ष्य प्राणान् परित्यजाषि' इति चिन्तयित्वार्धरात्रसमये प्रसुप्ते परिजने एकाकिन्येव निर्गता राजगहात् । अवतीर्णा राजमार्गम् । गृहीता तस्करैः । गृहीत्वाऽऽभरणं विक्रीता बर्बरकुलगामिनोऽचलसार्थवाहस्य हस्ते। प्रवर्तिता तेन निजकुलम् । विपन्नं च तद् यानपात्रम् ।समासादितं चानया फलकम् । ततस्त्रिरात्रेण प्राप्तेदं कूलमवस्थां च । विपाकः पुनःप्राप्य भर्तारं भुक्त्वा भोगान् परलोकसाधनेन सफलमेव मानुषत्वं करिष्यतीति । मया भणितम्-भगवन् ! किं न व्यापावितस्तस्या वल्लभः ? भगवता भणितम्-आममिति । मया चिन्तितम्-'शोभनं दिया, इस बात को इसने सुना । तब निकलकर यह आर्य पिता के प्रति क्रुद्ध होने के कारण तामलिप्ती माया ईशानचन्द्र ने इसे बड़े आदर से रखा । अनन्तर वसन्त समय में) क्रीड़ा के लिए अनंगनन्दन उद्यान को जाते हुए इसे राजपुत्री ने देखा और इसके ऊपर उसका प्रेम हो गया। उसने अपने) मनोरथों से इसे पति मान लिया, किन्तु विवाह नहीं हुआ। कुछ दिन बीत जाने पर मनुष्यों की बातचीत से इसे मालूम पड़ गया कि वह मार डाला गया। तब उसके स्नेह से मोहित मन वाली यह राजपुत्री भी उसो श्मशान में मृत्यु को प्राप्त उस स्वामी को देख प्राणों का परित्याग करूँगी, ऐसा सोचकर आधीरात के समय, जबकि परिजन सो रहे थे, अकेले ही राजमहल से निकल गयी । जब वह राजमार्ग पर पहुँची तो उसे चोरों ने पकड़ लिया। आभूषणों को लेकर बर्बर देश के किनारे जाने वाले अचल सार्थवाह (व्यापारी) के हाथ बेच दिया। वह अपने तट (निवास) की ओर (इसे) ले गया। वह जहाज नष्ट हो गया । इसे लकड़ी का टुकड़ा मिल गया। तब तीन रात्रियों में इस तट और अवस्था को प्राप्त हुई। इसका भावी परिणाम यह होगा कि यह पुनः पति को प्राप्त कर, भोगों को भोगकर परलोक के साधन द्वारा मनुष्य भाव को सफल करेगी।' मैंने कहा-'भगवन् ! क्या उसका पति मारा नहीं गया ?' भगवान् ने कहा-'हाँ !' मैंने सोचा-'ठीक हुआ।' १. अयं कोष्ठान्तर्गतः पाठः क. पुस्तक प्रान्त भागे एव, २. चिमीए-क, ३. कूल ईदसं (ईदिसि) अवक। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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