Book Title: Samraicch Kaha Part 1
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 446
________________ ३८६ [समराइयां कयं आवस्तयं, पुच्छिया य सा मए वच्छे, कुओ तुमं । तीए भणियं भयवइ, तामलित्तीओ । मए भणियं - का उण तुम, कहिं वा पट्टिय त्ति । तओ दीहदीहं नीससिय न जंपियमिमोए । तओ मए चितियं - महाकुलपसूया खु एसा; ता कहमेवमत्ताणं पयासेइ; ता कि एइणा; कुलवई पुच्छिस्सामि त्ति । अइक्कतो वासरो। कयं संझासमओचियमणुद्वाणं । गया। हं कुलवइसयासं । पणमिऊण पुच्छिओ भयवं कुलवई - भयवं, का उण एसा कन्नया, कहं वा इमं ईइसमवत्थंतरं पत्ता, कोइसो वा से विवाओ भविस्सs त्ति । तओ दाऊणमुवओगं विद्याणिऊण तवप्पहावेणं भणियं भयवया । सुण । तामलित्तीसामिणो ईसाणचंदस्स धूया खु एसा भक्तारसिणेहपराहीणयाए' इमं ईइस अवत्थंतरं पत्त त्ति । मए भणियं -- भयवं, किन्न एसा कन्नयति । भयवया भणियं -- कन्नया दव्वओ, न उण भावओ ति । मए भणियं - 'कहं विय' । भयवया भणियं-सुण T विट्ठो इमीए मयणमहूसवम्मि तीए चेव नयरीए सेयवियाहिवस्स जसवम्मणो पुतो सणंकुमारो नाम । [ मोयाविया णेण तक्कर । ते य कचि दिठि वचाविऊण बाबाइया से ताणकृतमावश्यकम्, पृष्टा च सा मया-वत्स ! कुतस्त्वम् ? तया भणितम् - भगवति ! तामलिप्तीतः । मया भणितम् - का पुनस्त्वम्, कुत्र वा प्रस्थितेति ? ततो दीर्घदीर्घ निःश्वस्य न जल्पितमनया | ततो मया चिन्तितम् - महाकुल प्रस्ता खल्वेषा, ततः कथमेवमात्मानं प्रकाशयति ? ततः किमेतेन, कुलपति प्रक्ष्यामीति । अतिक्रान्तो वासरः । कृतं सन्ध्यासमयोचितमनुष्ठानम् । गताऽहं कुलपतिसकाशम् ! प्रणम्य पृष्टो भगवान् कुलपतिः -भगवन् ! का पुनरेषा कन्यका, कथं वेदमीदृशमवस्थान्तरं प्राप्ता की दृशो वा तस्या विपाको भविष्यतीति । तता दत्त्वोपयोगं विज्ञाय तपःप्रभावेण भणितं भगवता - -शृणु तामलिप्तोस्वामिन ईशानवेन्द्रस्य दुहिता खल्वेषा भर्तृ स्नेहपराधीनतयां इदमोदृशमवस्थान्तरं प्राप्तेति । मया भणितम् भगवन् ! किन्नु एषा कन्यकेति ? भगवता भणितम् - कन्यका द्रव्यतो न पुनर्भावत इति । मया भणितम् - कथमिव ?' भगवता भणितम् - शृणु "दृष्टोऽनया मदनमधूत्सवे तस्यामेव नगर्या श्वेतविश्वाधिपस्य यशोवर्मणः पुत्रः सनत्कुमारो नाम । [मोचिता अनेन तस्कराः ते च कथञ्चिद् दृष्टि वञ्चयित्वा व्यापादितास्तस्य तातेन, आकणितं आश्रम में ले गये। कुलपति का दिखाया, उसने भगवान् को प्रणाम किया, भगवान् ने अभिनन्दन किया । आवश्यक कार्यों को किया। मैंने उससे पूछा - 'पुत्री ! तुम कहाँ से आ रही हो ?' उसने कहा- 'भगवती ! तामलिप्ती से ।' मैंने कहा – 'तुम कौन हो, कहाँ जा रही थी ?' तब लम्बी-लम्बी साँसे लेकर उसने कुछ नहीं कहा। तब मैंने सोचा - यह बड़े कुल में उत्पन्न हुई है, अतः इस प्रकार कैसे कहेगी ? अतः इससे क्या ? कुलपति से पूछूंगी। दिन बीत गया, सन्ध्याकालीन अनुष्ठानों को किया । में कुलपति के समीप गयी । प्रणाम कर भगवान् कुलपति से पूछा - 'भगवन् ! यह कन्या कौन है ? कैसे इस प्रकार की अवस्था को प्राप्त हुई है ? इसका क्या फल होगा ? तब ध्यान लगाकर तप के प्रभाव से जानकर भगवान् ने कहा- 'सुनो- यह तामलिप्ती के स्वामी ईशानचन्द्र की पुत्री है, पतिस्नेह की पराधीनता के कारण यह इस अवस्था को प्राप्त हुई है।' मैंने कहा'भगवन् ! क्या यह कन्या (कु. आरी) नहीं है ?' भगवान् ने कहा- 'कन्या द्रव्य से है, भाव से नहीं ।' मैंने कहा'कैसे ?' भगवान् ने कहा- 'सुनो उसी नगरी में इसने मदनमहोत्सव पर श्वेतविका के राजा यशोवर्मा के पुत्र सनत्कुमार को देखा। इस राजकुमार ने चोरों को छुड़ाया था । उन चोरों को राजकुमार के पिता ने ( पुत्र की) दृष्टि से ओझल कर मरवा 1. एयाए - क । २ परायत्तमाएक Jain Education International - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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