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पंचमो भवो ]
भावाए रयणीए नवरं । ता एवं पाविओ त्ति ।
मए भणि--सुंदरा संपत्ती । गहिओ पडो । तओ आउच्छिऊण मणोरहदत्तपरियणं अहिनंदिया तेण सह मणोरहदत्तेणगया वेलाउलं । दिट्ठ व सुरविमाणागारमणुगतं विचित्तत्रयमालोवसोहियं अणावतं | अब्भुट्टिया जाणवत्तसामिणा ईसरदत्तेण । कओ णेण पणामो । उवणीयाई आसनाई । समप्पिया मणोरहदत्तेण । भणियं च तेण सत्थवाहपुत्त, एए खु मम सामिणो वयसया बंधवा जीवि, न केइ ते जे न हवंति ति; ता सुंदरं दग्वा । तेण भणियं-वयंस, किमणेणं पुणरुत्तविण्णासेण; मज्झवि इमे ईइसा चैव त्ति । तओ उवारूढा जाणवस, खित्ती बली समुहस्स, ऊसिओ सियवडो, दिन्नं दिसिम्मुह निजामएण पवहणं ति । पणमिऊण अम्हे ठिओ मणोरहदत्तो । पयट्ट जाणवत्तं । गम्मए सोहलदीवाहिमुहं ति ।
एवं गच्छ माणा तेरसमे दियहे' उन्नओ अम्हाणमुवरि कालो व कालमेहो, जीवियासा विय फुरिया विज्जुलेहा, उम्मूलियगिरिकाणणो य आगंपर्यंतो जलनिहि उक्खिवंतो महंतकल्लोले वियंकन्यका | प्रष्टिवावां प्रभातायां रजन्यां नगरम् । तत एवं प्राप्त इति ।
भया भणितम् - सुन्दरा सम्प्राप्तिः । गृहीतः पटः । ततः आपृच्छय मनोरथदत्तपरिजनममिनन्दितौ तेन सह मनोरथदत्तेन गतौ वेलाकुलम् । दृष्टं च सुरविमानाकारमनुकुर्वद् विचित्रध्वजमालोपशोभितं यानपात्रम् | अभ्युत्थिता यानपात्रस्वामिनेश्वरदत्तेन । कृतस्तेन प्रणामः । उपनीतान्यासनानि । समर्पितौ मनोरथदत्तेन । भणितं व तेन - सार्थवाहपुत्र ! एतो खलु मम स्वामिनौ वयस्यां बान्धव जीवितं, न कावपि तौ यो न भवत इति, ततः सुन्दरं द्रष्टव्यौ । तेन भणितम् - वयस्य ! किमनेन पुनरुक्त विन्यासेन, ममापीमो ईदृशावेवेति । तत उपारूढी यानपात्रम्, क्षिप्तो बलिः समुद्रस्य । उच्छ्रितः सितपटः । दत्तं दिक्सम्मुखं निर्यामकेन प्रवहणमिति । प्रणम्यावां स्थितो मनोरथदत्तः । प्रवृत्तं यानपात्रम् । गम्यते सिंहलद्वीपाभिमुखमिति ।
एवं गच्छतां त्रयोदशे दिवसे उन्नतोऽस्माकमुपरि काल इव कालमेघः जीविताशेव स्फुरिता विद्यल्लेखा, उन्मलितगिरिकाननश्चाकम्पयन् जलनिधिमुत्क्षिपन् महतः कल्लोलान् विजृम्भितो ले लिया । यक्षकन्या चली गयी। हम दोनों रात्रि के प्रभातरूप में परिणत होने पर अर्थात् सबेरा होने पर, नगर मैं प्रविष्ट हुए। तो यह (वस्त्ररत्न) इस प्रकार प्राप्त हुआ ।
मैंने कहा -- ' ( इसकी प्राप्ति सुन्दर है ।' वस्त्र को ले लिया । अनन्तर मनोरथदत्त के परिजन से पूछकर उसे अभिनन्दित होकर मनोरथदत्त के साथ दोनों समुद्र तट पर गये और देवविमान का अनुसरण करने वाले, अनेक प्रकार की ध्वजाओं और मालाओं से शोभित जहाज को देखा । जहाज का स्वामी ईश्वरदत्त उठा । उसने प्रणाम किया। आसन लाये गये। हम दोनों को मनोरथदत्त ने समर्पित कर दिया। मनोरथदत्त ने कहा--' सार्थवाहपुत्र ! ये दोनों मेरे स्वामी, मित्र, बान्धव और प्राण हैं, ये दोनों जो कोई भी होंगे, ऐसा नहीं होना चाहिए अर्थात् आप इन्हें ऐसा नहीं मानना, भली प्रकार से इनकी देखभाल रखना।' ईश्वरदत्त ने कहा- 'मित्र ! इस प्रकार की पुनरुक्ति से क्या लाभ? मेरे लिए ये दोनों इसी प्रकार हैं।' तब हम दोनों जहाज पर चढ़ गये । समुद्र में बलि फेंकी । सफेद वस्त्र (पाल) को खोला। जहाज चलाने वाले ने नाव को (अनुकूल) दिशा की ओर किया। हम लोगों को प्रणाम कर मनोरथदत्त रुक गया । जहाज चला। सिंहलद्वीप की ओर जा रहे थे ।
इस प्रकार जाते हुए तेरहवें दिन हमलोगों के ऊपर काल के समान कालमेघ उमड़ पड़ा। जीवन की (क्षणिक) आशा जैसी बिजली च न की । पर्वत और वन को उखाड़कर, समुद्र को कँपाकर, बड़ी-बड़ी तरंगों को
१, दिवसेक ।
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