Book Title: Samraicch Kaha Part 1
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 433
________________ ३७१ पंचमो भवो फुरंत भासुरच्छाओ महापमाणो अच्वंतसहिणरूवो पडओ । भणियं च तेण - कुमार, सकोउयं ति करिऊण गेण्हाहि एयं नयणमोहणाभिहाण पडरयण ति । मए भणियं - 'कीइस कोउगं' ति । तेण भणियं - इमेण पच्छाइयसरीरो न दीसइ नयगेहि पुरिसोति । मए वि (जि) न्नासियं जाव तहेव ति । समुपपन्नं च मे कोउयं । भणिओ मणोरहदत्तो—वयंस, कहं पुण तए एस पाविओ त्ति । तेण भणियं - सुन' sara समुन्ना मे पोई आनंदउरनिवासिणा सिद्धविज्जापओएण सिद्धसेणाभिहाणेणं सिद्धउत्तेण । भणिओ य सो मए - वयंस, को उन इह विज्जासाहणम्मि परमत्यो, कि हवइ सच्चमेवेह व्विसंवाओ न वत्ति । तेण भणियं - जहत्तयारिणो हवइ ति । मए भणियं वयंस, महंत मे कोउय; ता दंसेहि मे दिव्वविल सियं ति । तेण भणियं थेवमियं, कि तु कायव्यं मंडलं । मए भणियं - 'करेउ वयंसो' । तेण भणियं - जइ एवं ता संजत्तीको ह सिद्धत्थमाइयं मंडलोवगरणं । संपाइयं मए । तओ अत्थमिए दिrयरे वियंभिए अंधयारे रडंतेमु निसायरेसु घेत्तूण मंडलोवगरणं विणिगया अम्हे दुवे वि रच्छायो महाप्रमाणोऽत्यन्तश्लक्ष्णरूपः पटः । भणितं च तेन कुमार ! सकौतुकमिति कृत्वा गृहाणंतद् नयनमोहनाभिधानं पटरत्नमिति । मया भणितं - कोदृशं कौतुकमिति ? तेन भणितम् - अनेन प्रच्छादितशरीरो न दृश्यते नयनाभ्यां पुरुष इति । मया विन्यासितं ( जिज्ञासितं ) यावत्तथैवेति । समुत्पन्नं च मे कौतुकम् । भणितो मनोरथदत्तः - - वयस्य ! कथं पुनस्त्वया एष प्राप्त इति ? न भणितम् — शृणु, इहैवागतस्य समुत्पन्ना मे प्रीतिरानन्दपुरवासिना सिद्धविद्याप्रयोगेण सिद्धसेनाभिधानेन सिद्धपुत्रेण । भणितश्च स मया - वयस्य ! कः पुनरिह विद्या साधने परमार्थः, किं भवति सत्यमेवेह दिव्यसंवादो नवेति । तेन भणितम् - यथोक्तकारिणो भवतीति । मया भणितम् - वयस्य ! महद् कौतुकम् ततो दर्शय मे दिव्यविलसितमिति । तेन भणितम् - स्तोकमिदम्, किन्तु कर्तव्यं मण्डलम् । भणितम् --' करोतु वयस्य:' । तेन भणितम्य - द्येवं ततः संयात्रीकुरु सिद्धार्थादिकं (सर्षपादि) मण्डलोपकरणम् । सम्पादितं मया - ततोऽस्तमिते दिनकरे विजृम्भितेऽन्धकारे रटत्सु निशाचरेषु ( घूकादिषु) गृहोत्वा मण्डलोपकरणं विनिर्गतावावां द्वावपि नगरादिति । प्राप्तौ च हो रही थी ऐसा बहुत बड़ा अत्यन्त चिकना वस्त्र लाया । उसने कहा - ' कुमार ! (यह ) कौतूहल से युक्त हैऐसा मानकर 'नयनमोहन' (नेत्रों को मोहित करने वाले ) नामवाले वस्त्र रत्न को लीजिए।' मैंने कहा - 'कैसा कौतूहल है ?' उसने कहा - 'इससे ढके हुए शरीरवाला पुरुष नेत्रों से दिखाई नहीं देता है।' मैंने जिज्ञासा की, वह वैसा ही था। मुझे कुतूहल उत्पन्न हुआ । मैंने मनोरथदत्त से कहा - 'मित्र ! तुमने इसे कैसे प्राप्त किया ?' उसने कहा - 'सुनो !' यहाँ आने पर सिद्धविद्या का प्रयोग करने वाले आनन्दपुर के निवासी सिद्ध-पुत्र सिद्धसेन से मेरी प्रीति हो गयी। मैंने उससे कहा - 'मित्र ! विद्या के साधन में वास्तविकता क्या होती है ? दिव्य संवाद सही होता है या नहीं ?' उसने कहा - 'सही होता है।' मैंने कहा - 'मित्र ! मुझे बहुत कोतुहल है अतः दिव्य चेष्टाओं को दिखाओ ।' उसने कहा- 'यह तो आसान बात है । किन्तु मण्डल बनाना पड़ेगा।' मैंने कहा - 'मित्र बनाइए ।' उसने कहा'यदि ऐसा है तो सिद्धार्थादि ( सरसों आदि) मण्डल के उपकरण लाओ। मैं उपकरण ले आया । जब सूर्य अस्तंगत हो गया, अन्धकार बढ़ गया, निशाचर ( घूकादि ) शब्द करने लगे तब मण्डलोपकरण लेकर हम लोग नगर से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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