Book Title: Samraicch Kaha Part 1
Author(s): Haribhadrasuri, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 434
________________ ३७६ समराइचकहा नयराओ त्ति । पत्ता य पेयवणं'। आलि हयमणेण तत्थेगदेसम्मि मंडलं, समप्पियं च मे मंडलग्गं, जालिओ जलणो। भणियं च तेण-वयंस, अप्पमत्तेण होयव्वं ति। पडिस्सुयं मए। पारद्धो तेण मंतजावो । तओ थेव वेलाए चेव दिवा मर--- गरुयनियंबवहणायासझीणमझा अहिणवुग्भिन्नकढिणथणविरायंतवच्छत्थलासं पुण्णमयलंछणमुह वियसियकं दोट्टनयणसोहा सुरतरुकुसुममालाविहूसियं धम्मेल्लमुबहती परिणयमहुयकुसुमवण्णा पव धुयवसणपषडं ऊरुजुयलं ठएंती गयणयलाओ समोवयमाणा जक्खकन्नय ति । तओ मए चितियं-- अहो महाहा या मंतस्स । तोए पणमित्रो सिद्धसेणो, भणिओ य सबहमरणं -भयवं, किं पण मे सुमरण ओषणं ति । तेण भणियं-न किंचि अन्नं, आव य दिव्वदंस जाणराई मे पियवयसो। तओ तीए मं पुल इऊण भणि- भद्द, परितुद्वा ते अहं इमेण दिव्वदंसणाणुराएण; ताकि ते पियं करेति ।मए भणि-तुह सणाओ वि अवरं पियं ति । तीए भणियं-तहावि अमोहदंसणाओ देवयाओ; गेण्हाहि एयं यणमोहणं पडरयणं ति । तओ मए ससंभमसंभासणजणिओवरोहण पणमिऊण तीसे चलणजुयलं सबहुमाणं चेव गहियं इमं । गया जक्खकन्नया। पविट्ठा अम्हे प्रेतवनम ! आलिखितमनेन तत्रैकदेश मण्डलम् समर्पितं च मे मण्डलायम, ज्वालितो ज्वलनः । भणितं च तेन-वयस्य ! अप्रमत्तेन भवितव्यमिति । प्रतिश्रुतं मया । प्रारब्धस्तेन मन्त्रजापः । ततः स्तोकवेलायामेव दृष्टा मया गुरुनितम्बवहनायासक्षीणमध्या अभिनवोद्भिन्न कठिनस्तनविराजद्वक्षःस्थला सम्पूर्णमृगलाञ्छनमुखी विकसि (कन्दोट्टनीलोत्पलनयनशोभा सुरतरुकुसुममालाविभूषितं धम्मिलमूद्वहन्ती परिणतमधककुसूमवर्णा पवनधतवसनप्रकटमरुयूगलं स्थगयन्ती गगनतलात्समवपतन्ती यक्षकन्येति । ततो मया चिन्तितम् - अहो महाप्रभावता मन्त्रस्य। तया प्रणत: सिद्धसेनः, भणितश्च सबहुमानम्-भगवन् ! किं पुन में स्मरण प्रयोजनमिति ? तेन भणितम्-न किञ्चिदन्यत, अपि च दिव्यदर्शनानुरागी मे प्रियवयस्यः । ततस्तया मां दृष्ट्वा भणितम्--भद्र ! परितुष्टा तेऽहं दिव्यदर्शनानुरागेण, ततः किं ते प्रियं करोमीति । मया भणितम- तव दर्शनादपि अपरं प्रियमिति ? तम-तथाप्यमोघदर्शना देवना:, गहापंतद नयनमोहनं पटरत्नमिति । ततो मया रासम्भ्रमसम्भाषणजनितोपरोधेन प्रणम्य तस्याश्चरणयुगलं सबहुमानमेव गृहीतमिदम् । गता यक्षनिकले । दोनों प्रेतवन (श्मशान) में आये। एक स्थान पर उसने मण्डल (वृत्ताकार रचना) बनाया, मुझे तलवार सौंप दी (और) अग्नि जलायी। उसने कहा- 'मित्र! सावधान रहो।' मैंने स्वीकार किया। उसने मन्त्र का जाप प्रारम्भ किया । तब मैंने थोड़ी ही देर में यक्ष-कन्या देखी। वह भारी नितम्ब के भार को वहन करने के परिश्रम से पतली कमर वाली थी। नये-नये प्रकट कठिन स्तनों से उसकी छाती शोभायमान थी। सम्पूर्ण चन्द्रमा के समान उसका मुख था। खिले हुए नीलकमल के 'मान उसके नेत्रों की शोभा थी। कल्पवृक्ष के फूलों की माला से विभाषित जडे (धम्मिल्ल) को धारण किये हुए ही । पके हुए महुए के फूल के समान उसका रंग था। वायु के द्वारा वस्त्र को उड़ाने से उसकी दोनों जाँघे प्रकट है. जाने पर वह उन्हें ढक रही थी। वह आकाश से उतर रही थी। तब मैंने सोचा--ओह! मन्त्र बहुत प्रभावशाली होता है । उस यक्ष कन्या ने सिद्धसेन को प्रणाम किया और आदरपर्वक कहा-... 'भगवन् ! मुझे याद करने का क्या प्रयोजन है ?' उसने कहा-'अन्य कुछ नहीं, अपितु मेरा मित्र दिव्यदर्शन का अनुरागी है ।' तब उसने मुझे देखकर कहा---'भद्र ! दिव्यदर्शन के प्रति अनुराग होने के कारण मैं तमसे सन्तुष्ट हैं, अत: मैं तुम्हारा क्या प्रिय कर ।' मैंने कहा-'आपके दर्शन से अधिक कोई प्रिय हो सकता है ? उस यक्षकन्या ने कहा—'तो भी देवता अमोघदर्शन वाले होते हैं, इस नेत्रों को मोहने वाले वस्त्ररत्न को ग्रहण करो।' तब मैंने घबड़ाहट में बातचीत से उत्पन्न विघ्न के कारण उसके दोनों चरणों को प्रणामकर आदरपूर्वक इसे तया १. पिउवणं-क। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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